शिष्यों की कृतज्ञता : शिष्यों की कृतज्ञता ज्ञापन द्रोणाचार्य के शिष्य उन्हें घेरे हुए बैठे थे। सफलतापूर्वक शिक्षण कार्य पूर्ण होने की प्रसन्नता उनके मुखमंडल पर झलक रही थी।
“आचार्य प्रवर!” ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर कृतज्ञता प्रकट करते हुए बोले, ‘आपने हमें अस्त्र-शस्त्र का पूर्ण ज्ञान प्रदान किया। हम सभी आपके कृतज्ञ हैं। कृपया हमसे अपनी इच्छानुसार गुरु-दक्षिणा प्राप्त करके हमें गुरुऋण से उऋण होने का अवसर दीजिए।”
*”वत्स युधिष्ठिर!” द्रोणाचार्य स्नेह से बोले, मैं तुम सभी शिष्यों से अति प्रसन्न हूं और सबके उज्वल भविष्य की कामना करता हूं। अब रही गुरु दक्षिणा की बात, तो मैं भली प्रकार जानता हूं कि तुम सब मेरे ऐसे योग्यतम शिष्य हो जो कभी कोई ऐसा कार्य नहीं करोगे, जिससे मेरा अपमान हो!” | गुरुदेव!” युधिष्ठिर तथा अन्य शिष्य समवेत स्वर में बोले, “यदि कोई आपका अपमान करने की बात भी सोचेगा, तो उसे निश्चित रूप से मौत की गोद में सोना होगा।”
अपने शिष्यों की निष्ठा देखकर द्रोणाचार्य का मस्तक गर्व से ऊंचा हो गया।
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