द्रोणाचार्य की आज्ञा : युधिष्ठिर और अन्य शिष्यों ने द्रोणाचार्य से बारम्बार गुरु-दक्षिणा के लिए आग्रह किया तो वे बोले, ‘प्रिय शिष्यो! यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो मैं तुम्हें गुरु-दक्षिणा की आज्ञा देता हूं, किंतु मुझे गुरुदक्षिणा में धन-सम्पत्ति अथवा कोई विशिष्ट सेवा नहीं चाहिए।’
*आचार्य प्रवर!” अर्जुन श्रद्धावनत होते हुए बोला, “आपको जो चाहिए, उसके लिए कृपया हमें आज्ञा दीजिए।”
*”वत्स अर्जुन ! ध्यान से सुनो, गुरु दक्षिणा में मुझे पांचालराज द्रुपद चाहिए,’ द्रोणाचार्य अपना मंतव्य प्रकट करते हुए बोले, “बोलो, क्या तुम उसे बंदी बनाकर मेरे सम्मुख ला सकते हो ?’
| अर्जुन अपने धनुष को हवा में उठाते हुए बोला, “आचार्य प्रवर! आपने मांगा भी तो केवल द्रुपद! यदि आप भूमंडल जीतकर अपने चरणों में रखने का आदेश देते तो मैं उसे भी पूर्ण कर देता।”
“वत्स! मुझे तुमसे यही आशा है, किंतु इस समय मुझे केवल बंदी अवस्था में द्रुपद ही चाहिए।”
‘आपकी आज्ञा हमें शिरोधार्य है आचार्य प्रवर !”सभी शिष्यों ने समवेत स्वर में कहा। आचार्य को प्रणाम कर सबने पांचाल प्रदेश की ओर प्रस्थान कर दिया।
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