पराजित द्रुपद का अर्जुन से वार्तालाप : बंदी होने के बाद भी पांचालराज के मुख पर मलिनता का कोई चिह्न न था। बल्कि वे तो अर्जुन के रण-कौशल और बाण चलाने की अद्भुत प्रतिभा के प्रशंसक हो गए थे। वे अर्जुन से अपरिचित थे, किंतु उसकी वीरता ने द्रुपद को अपनी ओर आकर्षित कर लिया था।
“वीर युवक!” बंदी द्रुपद के मुख से निकला, “तुमने हमें अपने रण-कौशल से पराजित कर दिया। हम तुम्हारी वीरता और शौर्य पर मुग्ध हैं। बंदी अवस्था में भी हम तुम्हारे प्रशंसक हैं, किंतु अपना परिचय तो दो कि तुम कौन हो?”
“पांचालराज! मैं पांडु-पुत्र अर्जुन हूं, अर्जुन गंभीरता से बोला, ” और अपने गुरु द्रोणाचार्य के आदेश पर आपको बंदी बनाकर उनके पास ले जा रहा हूं।”
द्रोण…ब्राह्मण द्रोण!” द्रुपद आश्चर्य से बोले, “तुम उनके शिष्य हो ?’
“हां, उन्हीं के शिष्यत्व में मैंने धनुर्विद्या की शिक्षा पाई है, जिसके कारण आप पराजित होकर बंदी अवस्था में यहां हैं,” अर्जुन ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “क्या आपको कुछ और भी जानना है?”
“हां, किंतु तुमसे नहीं…द्रोण से!” कहकर द्रुपद मौन हो गए।
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