यात्रा का साथी | Yatra Ka Sathi
यात्रा का साथी | Yatra Ka Sathi : किसी नगर में ब्रह्मदत्त नाम का एक ब्राह्मण कुमार रहता था। एक दिन उसे किसी दूसरे गांव में जाने की आवश्यकता आ पड़ी। ब्राह्मण – पुत्र जाने को तैयार हुआ तो उसकी मां बोली- “बेटा ! अकेले मत जाओ। किसी की साथ लिवा जाओ।”
ब्राह्मण कुमार बोला-‘मां ! भयभीत क्यों होती हो ? मार्ग निष्कटक है। रास्ते में किसी प्रकार का भय नहीं है। मैं अकेला ही चला जाऊंगा। किंतु ब्राह्मणी को संतोष न हुआ। वह एक बावली पर गई और चिमटी से पकड़कर एक केकड़ा उठा लाई। उसने केकड़ा कपूर की एक डिबिया में बंद किया और डिबिया थैले में डालकर उसे बेटे को देती हुई बोली-‘अब जाओ। रास्ते में यह केकड़ा तुम्हारा सहायक रहेगा।।’ युवक अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा। गर्मी का मौसम था।
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यात्रा का साथी | Yatra Ka Sathi : भीषण गर्मी पड़ रही थी। कुछ दूर चलने पर युवक पसीने-पसीने होकर हांफने लगा। विश्राम करने के लिए वह एक छायादार वृक्ष की धनी छांव में जाकर बैठ गया। उसे कुछ आराम-सा मिला तो उसे नींद आने लगी। वृक्ष के तने से सिर टिकाकर और थैला पास में रखकर वह वहीं सो गया। उस वृक्ष की जड़ के एक खोखल में एक काला सर्प रहता था। युवक के थैले से कपूर की गंध सूचकर वह थैले की ओर बढ़ने लगा। सर्प को कपूर की गंध बहुत प्रिय लगती है, अतः उसने युवक को तो छेड़ा नहीं, सीधा थैले में जा घुसा और लगा कपूर की डिबिया को खोलने। । ज्योंही उसने डिबिया खोली कि केकड़ा बाहर निकल आया।
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यात्रा का साथी | Yatra Ka Sathi : उसने सर्प के गले में अपने सड़ांसी की तरह पैने दांत चुभा दिए और उसका रक्त चूसने लगा। सर्प ने बहुत – सी पटखनियां लगाई, किंतु केकड़े की पकड़ न छूटी। अंततः सर्प का दम ही निकल गया। नींद खुलने पर युवक ने निगाह दौड़ाई तो उसने समीप ही मरा हुआ सर्प देखा। केकड़ा उस मृत सर्प की गरदन से चिपका हुआ पड़ा था। फिर जब कुछ दूर कपूर की खुली हुई डिबिया पर उसकी निगाह गई तो वह समझ गया कि इसी केकड़े ने काले नाग को मारा है।
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यात्रा का साथी | Yatra Ka Sathi : उसे अपनी माता का कथन स्मरण हो आया और वह सहयात्री का महत्व भी समझ गया। यह कथा सुनाने के बाद चक्रधारी ने सुवर्णसिद्ध से कहा – मित्र ! इसलिए मैं कहता हूं कि अकेले मत जाना। कोई साथ के लिए मिल जाए तो वह उत्तम रहेगा। यात्रा के समय साथ रहने वाला अत्यंत निबल व्यक्ति भी उपकारक ही होता है।” चक्रधारी की उपर्युक्त बात सुनने के बाद सुवर्णसिद्ध को संतोष हो गया और वह चक्रधारी से आज्ञा लेकर वापस लौट पड़ा।
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