राजा शीलनिधि की कन्या का माया-स्वयंवर : नारदजी श्री विष्णु से विदाई लेकर वहां से चले तो मार्ग में विष्णु माया से रचित उन्हें एक नगर मिला। वह नगर अत्यंत भव्य था। वहां का राजा शीलनिधि अपनी कन्या का स्वयंवर रचा रहा था। दूर-दूर से राजकुमार वहां आए हुए थे। नगर का सौंदर्य देखकर नारदजी उस नगर में चले गए। वहां राजा शीलनिधि ने नारदजी को देखा तो महल में उनका बड़ा आदर-सत्कार किया। उसने अपनी कन्या को बुलवाकर नारदजी को प्रणाम कराया और उसके भविष्य के बारे में पूछा।
राजा की बात सुनकर नारदजी उस कन्या के चेहरे को घड़ी भर देखते रहे। फिर वे कुछ गणना करके बोले-‘राजन! आपकी कन्या तो अति भाग्यशाली है। इसका पति तो तीनों लोकों में विजय पाने वाला, विष्णु के समान वीर और शिव के समान कामदेव को जीतने वाला कोई महायशस्वी व्यक्ति होगा। वह इसी स्वयंवर में इसका वरण करेगा।”
राजकन्या की गुणशीलता ने नारदजी को मोहित कर दिया, लेकिन कन्या का वरण करने के लिए सुंदर रूप की आवश्यकता थी। सुंदर रूप की प्राप्ति के लिए वे राजा से विदा लेकर बैकुण्ठ लोक की ओर चल दिए।
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