Hindi Ki Hasya Kavita | सबसे शानदार हास्य कविताएँ
Hindi Ki Hasya Kavita : हँसना जीवन का एक अहम हिस्सा हैं. अगर आप लोग खुश रहना चाहते हैं तो जरुरी होगा की आप अपने दिनचर्या की तरफ एक नज़र दौडाए तो आप पाएंगे की जीवन में हमे सैदेव वो ही पल याद रहते हैं जो हमने हँसते गाते हुवे खुशियों की आंच में बैठ के बिताए हैं. उसी के सन्दर्भ में हम आपके लिए ये कहानी लेकर प्रस्तुत हुवे हैं और इन बेहतरीन कविताओं का संग्रह भी :
एक बार एक शिष्य ने अपने गुरु से पूछा “गुरु देव धर्म का मूल रहस्य क्या हैं. सद्गुरु ने कहा “प्रतीक्षा करो और जब हम दोनों के अतिरिक्त यहाँ कोई भी नहीं होगा, तब मैं तुम्हे बताउगा” और फिर उस दिन बहुत बार ऐसे मौके आये जब की वो दोनों ही झोपड़े में थे और हर बार शिष्य ने अपने प्रश्न भी दोहराए लेकिन वो अपने प्रश्न पूरा भी नहीं कर पाता था लेकिन गुरु देव अपने होंठो पर उंगली पर रख कर उसे चुप होने का इशारा करते थे और फिर सांझ हो गयी और फिर सद्गुरु का झोपड़ा बिलकुल खाली हो गया. शिष्य ने फिर पूछना चाहा लेकिन फिर गुरुदेव के होंठो पर उंगली रखी मिली फिर रात उतर आई और पूर्णिमा का चाँद आकाश में उठ आया. शिष्य ने कहा अब मैं और कब तक प्रतीक्षा करू तब गुरु उसे लेकर झोपड़े के बाहर आ गए और उसके कानो में उन्होंने फुसफुसा के कहा “बांसों के ये वृक्ष यहाँ लम्बे हैं और बांसों के ये वृक्ष यहाँ छोटे हैं” और जो जैसा हैं वो वैसा हैं इसकी पूर्ण स्वीकृति ही स्वभाव में प्रतिशत हैं और स्वभाव धर्म हैं और स्वभाव में बिना धर्म का मूल रहस्य शब्द में धर्म की अभिव्यक्ति हैं और निशब्द में उसके अभिव्यक्ति हैं सुनीता,
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Hindi Ki Hasya Kavita : जीवन में सबसे कठिन बात हैं स्वयं को स्वीकार करना, अहंकार को उससे बड़ी चोट और किसी बात से नहीं लगती क्यूंकि अहंकार हैं सदा कुछ और ज्यादा होने की महत्वकान्षा वो कहता हैं की इससे अधिक करो इससे ज्यादा धन होगा तुम्हारे पास. तुम्हारे योग्यता सदा धन का मोल से करती हैं. ये तुम्हारे अनुकूल नहीं, योग्य नहीं इतने थोड़े से तुम भ्रष्ट हो जाओ और ऐसा नहीं हैं की धन बढ़ जाएगा तो तुम तृप्त हो जाओगे कितना ही धन हो जाए या होगा, अहंकार बार – बार कहेगा तुम्हारी योग्यता ज्यादा थी अयोग्य तुमसे आगे खड़े हैं जिन्हें भीख मांगनी चाहिए थी वो सम्राट हो गए और जिन्हें सम्राट होना चाहिए था केवल इतने पर अटके हो. अहंकार ज्यादा और ज्यादा होने का स्वप्नं देता हैं और अहंकार ये मानने को कभी राज़ी नहीं होता की तुमने अपनी योग्यता के बराबर पा लिया ये तो असंभव ही हैं की अहंकार ये मानने को राज़ी हो की मैंने अपने अहंकार से ज्यादा पा लिया तुम्हारी पात्रता बहुत ज्यादा मालुम होती हैं और जो मिलता हैं वो बहुत ही तुच्छ मालुम होता हैं. यही दौड़ अस्वीकार और धन के सम्बन्ध में ही नहीं सभी संबंधो में सभी दिशाओ में चाहे ज्ञान हो, चाहे यश हो, चाहे पद हो ये सब संसार की चीज़े तो हमारी समझ में भी आ जाती हैं की यहाँ दौड़ हैं और दौड़ छोड़ने जैसी हैं क्यूंकि दौड़ से अशांति के अलावा और भी क्या मिलेगा और फिर ना तृप्त होने वाली दौड़ जिसका कोई अंत नहीं तुम जहाँ भी रहोगे इतने ही अतृप्त रहोगे जितने की तुम यहाँ हो पर मजा तो ये हैं की ये दौड़ धर्म में प्रविष्ट हो जाती हैं जब तुम ध्यान में बैठे रहते हो तब भी ये दौड़ इतने से ध्यान से क्या होगा? तुम्हारी योग्यता बड़ी हैं और तुम्हारे जीवन में तो समाधी बरसनी चाहिए और इतनी छोटी सी शांति मिल गयी इससे क्या होगा की मन थोडा प्रफुलित रहने लगा इससे क्या होगा.
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Hindi Ki Hasya Kavita : तुम्हारे जीवन में तो आनंद का महासागर होना चाहिए. छोटी सी प्रकाश की किरण मिली इससे क्या होगा. हजार हजार सूर्य एक साथ उदित होने चाहिए. वही दौड़ हैं जो पहले थी अब भी हैं पहले हम सांसारिक कहते थे अब धार्मिक कहते हैं लेकिन उसका स्वभाव तो बदला नहीं. क्या धार्मिक दौड़ भी हो सकती हैं दौड़ने का नाम ही संसार हैं. तो धार्मिक दौड़ तो हो ही नहीं सकती धर्म तो रुक जाने का ठहर जाने का नाम हैं और रुकना और ठहरना किसी आकांशा किसी फल के लिए नहीं. रुकना ठहरना इस बात की समझ से हैं की जो मिला हैं वो काफी हैं जो मिला हैं वो ना काफी हैं वो शायद जरुरत से ज्यादा हैं. जो मिला हैं वो मेरी पात्रता से ज्यादा हैं अहंकार इसे स्वीकार नहीं कर पाता क्यूंकि अगर रुके तुम की अहंकार मरा. तुम्ह्हरी दौड़ में अहंकार का जीवन तुम्हारे रुकने में उसकी मृत्यु. इसलिए स्वय को स्वीकार करना बहुत ही कठिन हैं. स्वय को स्वीकार करने का अर्थ हैं की अहंकार की जगह ना रही तुम जैसे हो ये भी जरुरत से ज्यादा हो इसके लिए भी तुम्हे कृतज्ञ होना चाहिए अनुग्रहित होने चाहिए. ये भी ईश्वर की अनुकम्पा हैं की तुम हो. धार्मिक आत्मा जिसे हम कहते हैं वो मन में कहता हैं की धन की दौड़ से क्या होगा लेकिन मन इससे पराजित नहीं होता की नीति की दौड़ से क्या होगा. निति की दौड़ तो जारी रखनी होगी बेईमानी उसे तो छोड़ना हैं उसे तो छोड़ना हैं ईमानदार होना हैं. चोरी हैं उसे छोड़ना हैं आचोर होना हैं. अशांति हैं उसे त्यागना. शांति की उपलब्धी करना. दौड़ तो जारी रखी हैं लेकिन अब विशाल नैतिक होकर और यही ज़िन्दगी की बड़ी भारी खोज हैं जब तक तुम दौडोगे तब तक तुम संसार में रहोगे. धर्म नयी दौड़ नहीं, कोई पहनावा नहीं. धर्म तो इस सत्य की स्वीकृति हैं की तुम जैसे हो अन्यथा होने का उपाय नहीं. अशांत हो तो अशांत हो बेईमान हो तो बेईमान हो चोर हो तो चोर हो करोगे क्या? और अगर चोर अगर आचोर होने की कोशिश नहीं भी करेगा तो उसमे भी चोरी कर जाएगा क्यूंकि चोर कोशिश तो चोर ही करेगा. एक मछली की दूकान के सामने मुल्ला नसरुद्दीन खड़ा था थोडा दूर हट के रास्ते पर एक परिचित मछली बेचने वाला उससे उसने कहा की भैया जरा दो तीन बड़ी मछलियाँ मेरी तरफ फेंको तो उसने कहा फेकने की क्या जरुरत हैं तुम पास आ जाओ तुम्हे हाथ में ही दे दूंगा तुम दूर दूर क्यों खड़े हो.
Hindi Ki Hasya Kavita : नसरुद्दीन ने कहा नहीं “उसके पीछे कुछ कारण हैं “मैं दुनिया का सबसे बड़ा निखटू हो सकता हूँ लेकिन झूठा नहीं. अगर तुम इसे मेरी तरफ फेकोगे और मैं पकडूँगा तो मैं घर जा के पत्नी से कह सकूँगा की मैंने इन्हें स्वयं पकड़ा हैं. बेईमान आदमी अगर इमानदारी करने भी जाए तो जाएगा तो बेमाइन ही, झूठ बोलने वाला अगर सच भी बोलेगा तो बोलेगा तो झूठ बोलने वाला ही. झूठा आदमी सच में से भी रास्ता निकाल लेगा. बेईमान इमानदारी में से भी बेईमानी करेगा. हिंसक अहिंसा से भी हिंसा ही करेगा. उसके ढंग बदल जाएंगे ऊपरी व्यवस्था बदल जाएगी, ढांचा रंग रूप सब बदल जाएगा लेकिन भीतर वही रहेगा इससे अनूठा हो भी नहीं सकता. अगर तुम हिंसक हो और तुम ने अपनी ऊपर हिंसा थोपी हैं तो तुम दुसरो को नए ढंग से सताना शरू कर दोगे. और ये भी हो सकता हैं की नया ढंग पुराने ढंग से भी कारगर साबित हो. किसी को सताना कई ढंग से हो सकता हैं तुम किसी गरदन पर छुरा रखो तो तुम अगर अपनी गर्दन पर छुरा रख के खड़े हो जाओ की अगर मेरी बात नहीं मानी तो मैं हत्या कर लूँगा तब भी बात वही हैं. तब भी सिर्फ हिंसा की ही देर हैं और पहले के मुकाबले अब हिंसा और ज्यादा लोगो को नुक्सान पहुंचा सकती हैं. हमे केवल इतना करना हैं की इन सब चीजों से दूर रहना हैं और सैदेव खुश रहने के रास्ते खोजने हैं.
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श्याम बनेगा शेरू अपना गीत बनेगा बन्दर शिल्पा बिल्ली दूध पीएगी बैठी घर के अन्दर बबलू भौं भौं करता पल पल धूम मचाएगा। मोटू अपना हाथी बनकर झूमे सूंड हिलाएगा होगी फिर इन सबकी मस्ती गाती होगी बस्ती खुश होगा हर एक जानवर खुशियां कितनी सस्ती हा हा ही ही मैं भी मैं भी लगा मुखौटा गाऊं तुम हाथी तुम शेर बने तो मैं भालू बन जाऊं आहा कितने हम जंगल के प्यारे प्यारे वासी देख हमारे खेल नियारे जाती रहे उदासी
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आमों के अमरूद बन गये अमरूदों के केले मैंने यह सब कुछ देखा है आज गया था मेले बकरी थी बिलकुल छोटी सी हाथी की थी बोली मगर जुखाम नहीं सह पाई खाई उसने गोली छत पर होती थी खों खों खों मगर नहीं था बंदर बिल्ली ही यों बोल रही थी परसो मेरी छत पर गाय नहीं करती थी बां बां बोली वह अंगरेजी कहा बैल से, भूसा खालो देखा भालो, ए जी मुझको हुआ बड़ा ही अचरज मुर्गा म्याऊं करता हाथ जोड़कर बैठा चुहे से था डरता पर जब उगा रात में सूरज चंदा दिन में आया क्या होने को है दुनिया में मैं काफी घबराया तुरंत मूंद ली मैंने आंखें और न फिर कुछ देखा तभी लगा ज्यों जगा रही है आकर मुझको रेखा सपना देखा था अजीब सा बिलकुल गड़बड़ झाला सपनों की दुनियां में होता सब कुछ बड़ा निराला।
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एक हास्य कवि जी के पास एक नेता आया बोला हॅंसाने की कला हमें भी सिखाइए कवि ने कहा कि योगासन है अलग मेरा सुबह सुबह चार घंटे आप भी लगाइए बुद्धि तीव्र हो जाएगी नाचने लगेगा मन सीख लीजिए ना व्यर्थ समय गवांइए नेताजी ने कहा कविराज बतलाओ योग कवि बोला यहां आके मुर्गा बन जाइए
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मोर बोला, चंपा, चंपा,तू अपने चंपा को कपड़े क्यों नहीं पहनाती तू भी अजीब है पोलीएस्टर और नायलोन डेकोन और टेरीकोट, मुझे समझाती है तूने शायद मेरा रूप नहीं देखा, अरे हां, तूने अपना रूप देखा ही कहां है ड्रेस के नीचे अपना सूंदर पेट कभी देखा है अपने मोजों के भीतर का पैर कभी देखा है, नहीं, चंपा नहीं उन कपड़ों में सांस घुटती है,उन कपड़ों में काया सड़ती है,उन कपड़ों से बू रिसती है। और फिर, मेरे नाच का क्या होगा मेरे ठुमके का क्या होगा मेरे रंग रूप का क्या होगा मेरे कुहुक का क्या होगा मेरे ताज़गी का क्या होगा हार मानकर चंपा हाथी के पास गई हाथी दादा, हाथी दादा, तुम नंगे क्यों घूम रहे हो चलो, जंगल की बात छोड़ो लेकिन… तुम तो बाजार और मंदिर में राजा की सवारी में भी, वैसे के वैसे तुम तो दिखते हो जैसे मिट्टी का ढेला तुम किसी से शरमाते नहीं तुम्हें कोई देख ले तो एक बात पूछूं तुम अपटूडेट क्यों नहीं लगते तुम सफारी सूट टाई तो पहनो बिना जूते मोजे कैसे बाहर निकला जाए कैसे हैं मम्मी पापा तुम्हारे जो तुम्हें कभी नहीं डांटते हाथी दादा, तुम बुरा न मानो प्यारे लगते हो तुम मुझको। तभी तो कहती हूं… तभी तो कहती हूं…चंपा बिटिया तू जानती है इस ढेले को सभी प्यार करते हैं भारत की धरती मां, सूरज और चंदा मामा,गंगा मां और कावेरी मां झाड़ी और जंगल और सब जीव जंतू।सभी गले लगाते मूझको, फिर कपड़ों की ज़रूरत एक बात कहूं तुमसे, सुन कल टी वी में मैंने गांधी बापू को देखा… अधखुला शरीर बिन सिये एक ही कपड़े से ढका, वे खुद बनाते अपना कपड़ा पागल हुआ भारत देश सारा कताई करने लगे सभी तुम्हारे मम्मी पापा ने भी विदेशी कपड़ों की होली जलाई उन दिनों इंग्लैंड के राजा हम पर राज करते थे उन्होंने गांधी बापू को बुला भेजा था…उन्होंने कहा,कपड़े बदलकर आओ। गांधी बापू ने कहा, जैसा हूं वैसा ही आऊंगा। राजा को उनकी बात माननी पड़ी और वे मिले वैसे ही। गांधी बापू की बातें सोचती लौटी चंपा घर को…रास्ते में दो फूल मिले,साथ लिये दोनों को। घर आई. गई अपने कमरे में। दर्पण के सामने हुई खड़ी। उतार डाले कपड़े सभी जूते, मोजे, बक्कल भी लहरिया का एक टुकड़ा लिया शरीर पर लपेट। बालों में दो फूल लगाये। हुई दंग देख, खुद ही खुद को। अरे मैं तो सुन्दर दिखती हूं। मेरे पैर और मेरे हाथ, मेरी गर्दन, मेरे कंधे, सब कुछ। इतने में मां आ पहुंची। चंपा बिटिया, क्या हो रहा है मां, गांधी बापू की तरह एक कपड़ा लपेटा है। हाथी दादा ने मुझे गांधी बापू की बात बताई। मां, मैं कैसी दिख रही हूं तुम्हें गांधी बापू की बात याद है मां ने चंपा को चूम लिया।
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एक पेड़ पर नदी किनारे, बन्दर मामा रहते थे। वर्षा गर्मी सर्दी उसी पेड़ पर रहते थे। भूख मिटाने को बगिया से चुन चुन फल खाया करते। य़ा छीन झपट बच्चों सेये चीजें ले आया करते। खा पी सेठ हुए मामा जी, झूम झूम इठलाते थे। और नदी के मगर मौसिया देख देख ललचाते थे। सोचा करते अगर कहीं मैंमोटूमल को पा जाऊं। बैठ किनारे रेत के ऊपर खूब मजे से खाऊं। एक नई तरकीब अचानक,थी उसके मन में आई। बोले क्यों बैठै रहते हो, ऊपर ही मेरे भाई। नदी पर है एक बगीचा, आमों का प्यारा। और वहीं पर कभी नहीं, रहता है कोई रखवाला। इतना सुनते ही बन्दर के, मुँह में पानी भर आया। मगरमच्छ ने छट से, अपने ऊपर उसे बिठलाया। बीच नदी में मगरमच्छ, बोले अब आगे न जाऊंगा। आज कलेजा यहीं बैठकर मैं तो तेरा खाऊंगा। इतना सुनते ही बन्दर की बुद्धि बहुत चकराई। बोला वहीं पर क्यों, नहीं बतलाया भाई। लगता मुझको बोझ बहुत, उसको डाली पर रख आया। मगरमच्छ ने सोचा बात सही जो इसने बात बतलाया। मगरमच्छ ने झट से उसे, वापस जा लौटाया।बन्दर ने झट से पेड़ पर चढ़कर, अपना अंगुठा दिखलाया।
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नाव चली नाव चली नानी की नाव चली नीना की नानी की नाव चली लम्बे सफर पेसामान घर से निकाले गए नानी के घर से निकाले गए और नानी की नाव में डाले गए क्या क्या डाले गए एक छड़ी, एक घड़ी एक झाड़ू, एक लाड़ू एक सन्दूक, एक बन्दूक एक सलवार, एक तलवार एक घोड़े की जीन एक ढोलक एक बीन एक घोड़े की नाल एक घीमर का जाल एक लहसून, एक आलू एक तोता, एक भालू एक डोरा, एक डोरी एक बोरा, एक बोरी एक डंडा, एक झंडा एक हंडा, एक अंडा एक केला, एक आम एक पक्का एक कच्चा और टोकरी में एक बिल्ली का बच्चा फिर एक मगर ने पीछा किया नानी की नाव का पीछा किया नीना की नानी की नाव का पीछा किया फिर क्या हुआ चुपके से, पीछे से ऊपर से, नीचे से एक एक सामान खींच लिया एक बिल्ली का बच्चा एक केला, एक आम एक पक्का, एक कच्चा एक अंडा, एक हंडा एक बोरी, एक बोरा एक तोता, एक आलू एक लहसून, एक भालू एक धीमर का जाल एक घोड़े की नाल एक ढोलक, एक बीन एक घोड़े की जीन एक तलवार, एक सलवार एक बन्दूक, एक सन्दूक एक लाड़ू, एक झाड़ू एक घड़ी, एक छड़ी मगर नानी क्या कर रही थी नानी थी बेचारी बुड्ढी बहरी नीना की नानी थी बुड्ढी बहरी नानी की नींद थी इतनी गहरी कितनी गहरी नदिया से गहरी दिन दुपहरी रात की रानी ठंडा पानी गरम मसाला पेट में ताला साढ़े सोला पन्द्रह के पन्द्रह दूनी तीसतिया पैंतालिस चौके साठ पंजे पिछह छक्के नब्बे।
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यह नियम है – शाम ढलती है। दु:ख के आँचल का लहराना यह भी मन का अटल नियम है।
ऐसे मत हो -दिन तो भाए पर, रात ढले ना सहन करो।अपने हथियार रख दो सारे पोषण लेकर आई रात , कुछ पल यह भी ग्रहण करो।अपने हथियार रख दो सारे अपने हथियार सारे रख दो रख दो अपने हथियार सारे दिन तो भाए पर, रात ढले ना सहन करो। रख दो अपने हथियार सारे पोषण लेकर आई रात,रख दो अपने सारे हथियार रख दो अपने सारे हथियार पोषण लेकर आई रात यह नियम है – शाम ढलती है। दु:ख के आँचल का लहराना यह भी मन का अटल नियम है। ऐसे मत हो -दिन तो भाए पर, रात ढले ना सहन करो। रख दो अपने सारे हथियार -पोषण लेकर आई रात,कुछ पल यह भी ग्रहण करो।
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सोच में सीलन बहुत है सोच में सीलन बहुत है सड़ रही है, धूप तो दिखलाइये
है फ़क़त उनको हि डर बीमारियों का जिन्हें माफ़िक हैं नहीं बदली हवाएँ बंद हैं सब खिड़कियाँ जिनके घरों की जो नहीं सुन सके मौसम की सदाएँ
लाज़मी ही था बदलना जीर्ण गत कालाख अब झुंझलाइए
जड़ अगर आहत हुआ है चेतना से, ग़ैर मुमकिन, चेतना भी जड़ बनेगी है बहुत अँधियार को डर रोशनी से,किंतु तय है रोशनी यूँ ही रहेगी
क्यों भला भयभीत है पिंजरा परों से साफ़ तो बतलाइए
कीच से लिपटे हुए है तर्क सारे आप पर, माला बना कर जापते हैं और ज्यादा नग्न होते है इरादे जब अनर्गल शब्द उन पर ढाँकते हैं
हैं स्वयं दलदल कि दलदल में धंसे हैं गौर तो फरमाइए
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आओ बच्चों रेल दिखायें छुक छुक करती रेल चलायें सीटी देकर सीट पे बैठो एक दूजे की पीठ पे बैठोआगे पीछे, पीछे आगे लाइन से लेकिन कोई न भागे सारे सीधी लाइन में चलना आंखे दोनों नीची रखना बंद आंखों से देखा जाएआंख खुली तो कुछ न पाए आओ बच्चों रेल चलायें सुनो रे बच्चों, टिकट कटाओ तुम लोग नहीं आओगे तो रेल गाड़ी छूट जायेगी आओ सब लाइन से खड़े हो जाओ मुन्नी तुम हो इंजन ढब्बू तुम हो कोयले का डिब्बा चुन्नू मुन्नू, लीला शीला मोहन सोहन, जाधव माधव सब पैसेन्जर, सब पैसेन्जर एक, दो – रेलगाड़ी पी…
छुक छुक, छुक छुक छुक छुक, छुक छुक बीच वाले स्टेशन बोलें रूक रूक, रूक रूक रूक रूक, रूक रूक तड़क धड़क,लोहे की सड़क यहां से वहां, वहां से यहां छुक छूक…फुलाए छाती पार कर जाती बालू रेत, आलू के खेत बाजरा धान, बुड्ढा किसान हरा मैदान, मंदिर मकान,चाय की दुकान कुल्फी की डंडी, टीले पे झंडी पानी की कुंड, पंछी का झुंड झोपड़ी झाड़ी, खेती बाड़ी बादल धुआ, मोठ कुंआ कुंऐं के पीछे, बाग बगीचे धोबी का घाट, मंगल की हाट गांव का मेला, भीड़ झमेला टूटी दीवार, टट्टू सवार रेल गाड़ी पी…धरमपुर करमपुर करमपुर धरमपुर मांडवा खांडवा खांडवा मांडवा रायपुर जयपुर जयपुर रायपुर तलेगांव मलेगांव मलेगांव तलेगांव वेल्लोर नेल्लोर नेल्लोर वेल्लोर शोलापुर कोल्हापुर कोल्हापुर शोलापुर उत्कल डिंडीगल डिंडीगल उत्कल कोरेगांव गोरेगांव गोरेगांव कोरेगांव मेमदाबाद अहमदाबाद अहमदाबाद मेमदाबाद बीच वाले स्टेशन बोलें रूक रूक, रूक रूक कोरेगांव गोरेगांव गोरेगांव कोरेगांव मेमदाबाद अदमदाबाद अहमदाबाद मे मदाबाद बीच वाले स्टेशन बोलें रूक रूक, रूक रूक
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देख यायावर! तुझे दरिया बुलाते हैं, बूँदों के हार लेकर।तुझे अडिग पर्वत बुलाते हैं, हिम कणों का भार लेकर। देख यायावर! तू ठहरना नहीं, जब तलक वादियाँ मिल जाए न । देख यायावर! तू ठहरना नहीं, जब तलक आँखें अनिमेष ठहर जाए न। देख छूती नभ में जलद को, देवदारु की पंक्तियाँ। देख होती घाटियों में परिवर्तित, इन श्रृंखलाओं की विभक्तियाँ। हो रही है निछावर, जहाँ प्रकृति जी जान से।तृप्त हो जाता है हृदय, सुन निर्झर की मधु तान से। देख यायावर! ये वही महान् हैं,हिमालय की ये श्रृंखलाएँ, विश्व में बढा़ती शान हैं।
देख यायावर! ये दनुज सी लहरें, जाने तुझसे क्या कह रहीं।अथाह जलराशि इन दरियाओं में, चिरकाल से है बह रहीं। है समेटे हुए एक पूरा ही विश्व, यह अपने आप में। रहस्यों की विविध गर्तें, ले रहा है अपने साथ में। बैठकर इसके तट पर हे यायावर! करना मनन उस रचनाकार का। किया अद्भुत ये ब्रह्मांड साकार, धन्यवाद देना उस निराकार का।
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किताबे करती हैं बातें बीते ज़मानों की दुनियां की इंसानों की आज की कल की एक एक पल की खुशियों की ग़मों की फूलों की बमों की जीत की हार की प्यार की मार की क्या तुम नहीं सुनोगे इन किताबों की बातें किताबें कुछ कहना चाहती हैं तुम्हारे पास रहना चाहती है किताबों में चिड़ियां चहचहाती हैं किताबों में खेतियां लहलहाती हैं किताबों में झरने गुनगुनाते हैं परियों के किस्से सुनाते हैं किताबों में राकेट का राज़ है किताबों में साइंस की आवाज़ है किताबों का कितना बड़ा संसार है किताबों में ज्ञान का भंडार है क्या तुम इस संसार में नहीं जाना चाहोगे किताबें कुछ कहना चाहती हैं तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
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खिलौना बीच बाज़ार खिलौने वाले के खिलौने की आवाज़ से आकर्षित हो कदम उसकी तरफ बढ़े, मैंने छुआ, सहलाया उन्हें व एक खिलौने को अंक में भराकि पीछे से कर्कष आवाज़ ने मुझे झंझोड़ा ‘‘तुम्हारी बच्चों की सी हरकतें कब खत्म होंगी!’’ सुनकर मेरा नन्हा बच्चा सहम सा गया मेरी प्रौढ़ देह के अन्दर।
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हिन्दी गीतान्तर
क्यूँ भिजोये ना नयनों के नीर से
क्यूँ भिजोये ना नयनों के नीर से, सूखे धूलि कण तेरे। कौन जाने आओगे तुम्हीं, अनाहूत मेरे॥
पार हो आये हो मरु,नहीं वहाँ पर छाया तरु,पथ के दुःख दिये हैं तुम्हें, मन्द भाग्य मेरे॥
आलस भरे बैठा हुआ था मैं, अपने घर छाँव में,जाने कैसी व्यथा हुई होगी, तुम्हें पाँव-पाँव में।
अन्तर में है कसक वही, मौन दुःख में रणक रही, गभीर हृदय क्षत हुआ है, दागे मर्म मेरे॥
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आओ इस जंगल में आओ मत घबराओ मैं इस जंगल का एक पेड़ तुम्हें बुलाता हूं अपनी कथा सुनाता हूं आओ अपने साथियों से मिलवाता हूं आओ, छूकर देखो मेरा तना सीधा और मज़बूत और ऊपर मेरी पतली बल खाती शाखों को देखो देखो अनगिनत टहनियों को क्या पूछते हो मेरे दोस्तवो तो पिछले पतझड़ में गिर गए लेकिन जल्द ही फिर निकल आएंगे मेरी डालियों पर लद जाएंगे। मेरी जड़े नहीं दिखती तुम्हें लेकिन वे हैं ज़मीन के नीचे गहराई तक फैली हुई वही सोखती हैं ज़मीन से पानी मेरी प्यास बुझाने को लो फूट आए मेरे हरे भरे कपड़े लेकिन ये मेरी पोषाक ही नहीं मेरी पोषाक भी हैं हवा से खींचते हैं सांस और सूरज से गर्मी और बनाते हैं मेरी खुराक। ये कीड़े मकोड़े रेंगते, उड़ते, फुदकते हुए ये सब मेरे दोस्त हैं मैंने इन्हें दरारों, छेदों, सुराखों में बसाया है इनके अंडों को जाड़े गर्मी से बचाया है। इनके बच्चों को अपने सीने पर सुलाया है। इसी से खुश होकर ये गाते हैं गीत मधुर संगीत भुन भुन, झिन झिन और नाचते हैं सारे सारे दिन। रंग बिरंगे पंछी मेरे पास आते हैं मेरी टहनियों के बीच अपने घोंसले बनाते हैं चहकते हैं, गाते हैं उड़ते हैं, मंडराते हैं अपने नन्हें मुन्ने बच्चों को उड़ना सिखाते हैं। मुझे बच्चे बहुत प्यारे हैं बच्चों को मैं प्यारा हूं आते हैं मेरे साए में ऊधम मचाने लटकने मेरी डालियों से झूले बनाने मेरे खट्ठे मीठे फलों कोचोरी छिपे खाने मुझे ध्यान से देखो इस जंगल केसभी पेड़ों को प्यार से देखो हमारा और तुम्हारा कितना गहरा नाता है ये जंगल सब प्राणियों के कितने काम आता है मेरी लकड़ी से बनी हैं तुम्हारी मे ज़े कुर्सियां तुम्हारे सोने की चारपाई तुम्हारे दरवाजे खिड़कियां और तुम्हारी पेंसिल। टीचर से पूछो वो बतलाएंगी कि मैं बारिश भी करवाता हूं मिट्टी को बहने से बचाता हूं बाढ़ भी रूकवाता हूं और सूखा भी भगाता हूं ये पूरा जंगल तुम्हारे काम आता है तुम्हे कितना सुख पहुंचाता है। लेकिन मुनाफा खोर व्यापारी इसे अंधाधुंध कटवाता है नए पेड़ नहीं लगवाता है रोको रोको उस लोभी को रोको ऐसा करने से उसे टोको नहीं तो एक दिन ये जंगल खत्म हो जाएगा सिर्फ ठूंठों का एक श्मशान रह जाएगा।
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सोचा था मैंने अब नहीं लिखूँगा कविताएँ टूटन की, घुटन की लावारिस आँखों के सपनों की सामाजिक विवशताओं की जलती हुई हसरतों की बुझते हुए विश्वास की अब नहीं लिखूँगा कविताएँ | चुनूँगा शब्द व्योम से, प्रकृति से, सागर से, तरु से, मरु से सूरज के गाँव बैठ गढूगाँ—-मनोहारी मेहँदी-रचे शब्द-चित्र चाँद की शीतलता से युक्त जीवन सौंदर्य की परिभाषाएँ वैसी ही होगी मेरी कविताएँ | आकाश में उमड़ते-घुमड़ते काले- काले बादल कौंधती बिजलियाँ नव युगल के कोमल तन पर रिमझिम गिरती फुहारें तरु की डाली में उगते नए कोमल कोंपल हल्के जाड़े की मधुर सिहरन धुँध छटे दिन में चिड़ियों का नीचे उतर दाना चुगना,गर्मी के दिनों में समुन्दर में नहाना कितनी जीवन्त होंगी ये कविताएँ ऐसी ही होगी मेरी कविताएँ | भावनाएँ आतुर हो चली लगा मैं मौसम को बदल दूँगा मन पर लग रही अविश्वास, अनैतिकता और स्वार्थपरता की काई को खुरच-खुरच कर दूर कर दूँगा मवाद भरे जख्मों पर ठंढे चन्दन का लेप दूँगा थाप और ताल पर नाचेगा यौवन सुर के आगोश में ;फुदक-फुदक गौरेये-सा जन-मन को आह्लादित करेंगी मेरी कविताएँ जनहिताय होगी मेरी कविताएँ | किन्तु कहाँ ?टूटती ही जा रही विश्वास से घनिष्टता है हादसों और दंगों से भरी खबर सुनने की विवशता बंटती जागीर ही नहीं प्यार भी है बँट रहा वह आँसू नहीं खून था पीती जो रही है माँ की ममता बारूद की गंध में बैठकर चीखों और घबराहटो के बीच कैसे लिखी जा सकेंगी कोमल-स्पर्श की कविताएँ ? अलगाव, आतंक, घोटाला क्षत-विक्षत पहचान और दमन का बोलबाला ; बढ़ाएँगी सिसकती शक्तियों का हौसला छोटे से हृदय में प्यार के कुछ शब्द लेकर द्वार-द्वार घूमेंगी मेरी कविताएँ हाँ, वैसी ही होगी मेरी कविताएँ |
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जो तुम आ जाते एक बार जो तुम आ जाते एक बार कितनी करुणा कितने सँदेश, पथ में बिछ जाते बन पराग, गाता प्राणों का तार-तार अनुराग-भरा उन्माद-राग; आँसू लेते वे पद पखार ! जो तुम आ जाते एक बार !
हँस उठते पल में आर्द्र नयनघुल जाता ओठों से विषाद, छा जाता जीवन में वसंत लुट जाता चिर-संचित विराग; आँखें देतीं सर्वस्व वार | जो तुम आ जाते एक बार !
(Hasya Kavita in Hindi) :
काहे री नलिनी तूं कुमिला नीकाहे री नलिनी तूं कुमिलानी ।तेरे ही नालि सरोवर पानीं ॥जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास ।ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि ॥कहे ‘कबीर’ जे उदकि समान, ते नहिं मुए हमारे जान ।
Hindi Ki Hasya Kavita :
टन टन टन गई साइकिल दन दन दन।नीली पीली काली लाल उड़ी साइकिल सन सन सन।
Hindi Ki Hasya Kavita :
झीनी-झीनी बीनी चदरिया झीनी-झीनी बीनी चदरिया, काहे कै ताना, काहै कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया। इंगला पिंगला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया॥आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया।साँई को सियत मास दस लागै, ठोक-ठोक कै बीनी चदरिया॥ सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढ़ी कै मैली कीनी चदरिया। दास ‘कबीर’ जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया॥
Hindi Ki Hasya Kavita :
कैसे कैसे उत्पाद एक जगह बहुत भीड़ लगी थी एक आदमी चिल्ला रहा था कुछ बेचा जा रहा था आवाज कुछ इस तरह आई शरीर में स्फुर्ति न होने से परेशान हो भाई थकान से टूटता है बदन काम करने में नहीं लगता है मन खुद से ही झुंझलाए हो या किसी से लड़कर आए हो तो हमारे पास है ये दवा सभी परेशानियां कर देती है हवा मैं ने भीड़ को हटाया सही जगह पर आया मैंने कहा इतनी कीमती चीज कहीं मंहगी तो नहीं है वो बोला आपने भी ये क्या बात कही है इतने सारे गुण सिर्फ दो रुपए में लीजिए भाई साब दिलदार बीड़ी पीजिए
(Hasya Kavita in Hindi) :
साखी कबिरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय ।रोम रोम में रमि रहा, और अमल क्या खाय ॥
जल में बसै कमोदिनी, चंदा बसै अकास ।जो है जाको भावता, सो ताही के पास ॥
प्रीतम के पतियाँ लिखूँ, जो कहुँ होय बिदेस ।तन में मन में नैन में, ताको कहा सँदेस ॥
नैनन की करि कोठरी, पुतली पलँग बिछाय । पलकों की चिक डारिकै, पिय को लिया रिझाय ॥
भक्ति भाव भादों नदी, सबै चलीं घहराय ।सरिता सोइ सराहिये, जो जेठ मास ठहराय ॥
लागी लागी क्या करै, लागी बुरी बलाय ।लागी सोई जानिये, जो वार पार ह्वै जाय ॥
जाको राखे साइयाँ, मारि न सक्कै कोय ।बाल न बाँका करि सकै, जो जग बैरी होय ॥
नैनों अंतर आव तूँ, नैन झाँपि तोहिं लेवँ ।ना मैं देखी और को, ना तोहि देखन देवँ ॥
सब आए उस एक में, डार पात फल फूल ।अब कहो पाछे क्या रहा, गहि पकड़ा जब मूल ।।
लाली मेरे लाल की, जित देखों तित लाल ।लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥
कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढ़ै बन माहिं ।ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानै नाहिं ॥
सिर राखे सिर जात है, सिर काटे सिर होय ।जैसे बाती दीप की, कटि उजियारा होय ॥
जिन ढूँढ़ा तिन पाइयाँ, गहिरे पानी पैठ ।जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ ॥
बिरहिनि ओदी लाकड़ी, सपचे और धुँधुआय ।छुटि पड़ौं या बिरह से, जो सिगरी जरि जाय ॥
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं ।प्रेम गली अति साँकरी, ता मैं दो न समाहिं ॥
इस तन का दीवा करौं, बाती मेलूँ जीव ।लोही सींचीं तेल ज्यूँ, कब मुख देखीं पीव ॥
हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ ।बूँद समानी समँद में, सो कत हेरी जाइ ॥
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।पंथी को छाया नहीं, फल लागै अति दूर ॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरज से सब होय ।माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय ॥
दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय ।बिना जीव की स्वाँस से, लोह भसम ह्वै जाय ॥
ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय ।औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय ॥
जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोउ तू फूल ।तोकि फूल को फूल है, वाको है तिरसूल ॥
साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय ।मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय ॥
माटी कहै कुम्हार सों, तू क्या रौंदै मोहिं ।इक दिन ऐसा होइगा, मैं रौंदोंगी तोहिं ॥
माली आवत देखिकै, कलियाँ करीं पुकार ।फूली-फूली चुनि लईं, कालि हमारी बार ॥
Hindi Ki Hasya Kavita :
पिताजी ने बेटे को बुलाया पास में बिठाया, बोले आज राज की मैं बात ये बताऊंगा। शादी तो है बरबादी मत करवाना बेटे, तुमको किसी तरह मैं शादी से बचाऊंगा। बेटा मुस्कुराया बोला ठीक फरमाया डैड, मौका मिल गया तो मैं भी फर्ज ये निभाऊंगा। शादी मत करवाना तुम कभी जिन्दगी में,
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कवितावली अवधेस के द्वारे सकारे गई सुत गोद में भूपति लै निकसे । अवलोकि हौं सोच बिमोचन को ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से ॥’तुलसी’ मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन जातक-से । सजनी ससि में समसील उभै नवनील सरोरुह-से बिकसे ॥
तन की दुति श्याम सरोरुह लोचन कंज की मंजुलताई हरैं । अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंग की दूरि धरैं ॥ दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि ज्यों किलकैं कल बाल बिनोद करैं । अवधेस के बालक चारि सदा ‘तुलसी’ मन मंदिर में बिहरैं ॥
सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी सी भौंहैं । तून सरासन-बान धरें तुलसी बन मारग में सुठि सोहैं ॥ सादर बारहिं बार सुभायँ, चितै तुम्ह त्यों हमरो मनु मोहैं । पूँछति ग्राम बधु सिय सों, कहो साँवरे-से सखि रावरे को हैं ॥
सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली । तिरछै करि नैन, दे सैन, तिन्हैं, समुझाइ कछु मुसुकाइ चली ॥’तुलसी’ तेहि औसर सोहैं सबै, अवलोकति लोचन लाहू अली ।अनुराग तड़ाग में भानु उदै, बिगसीं मनो मंजुल कंजकली ॥ मैं भी अपने बच्चों को यही समझाऊंगा।
Hindi Ki Hasya Kavita :
एक नए अखबार वाले सर्वे कर रहे थे मैंने कहा मैं भी खूब अखबार लेता हूं जागरण, भास्कर, केसरी ओ हरिभूमि हिन्दी हो या अंगरेजी सबका सच्चा क्रेता हूं पत्रकार बोला इतनों को कैसे पढ़ते हैं मैंने कहा ये भी बात साफ कर देता हूं पढ़ने का तो कोइ भी प्रश्न ही नहीं है साब मैं कबाड़ी हूं पुराने तोलकर लेता हूं
Hindi Ki Hasya Kavita :
बालकाण्ड (रामचरितमानस अंश) कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥ देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥ जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥ सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥
सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥ २३० ॥
तात जन कतया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई॥जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मन कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ प्ररनारि न हेरी॥जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥
करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥ २३१ ॥
चितवति चकित चहुँ दिसि सीता। कहँ गए नृप किसोर मनु चिंता॥जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥अधिक सनेहुँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥लोचन मग रामही उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥
लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ॥ २३२ ॥
सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥
केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥ २३३ ॥
धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥बहुरि गौरि कर ध्यान करेहु। भूपकिसोर देखि किन लेहु॥सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंह निहारे॥नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥गूढ़ गिरा सुनि सुय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥
देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥ २३४ ॥
जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥
पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥ २३५ ॥
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥देबि पुजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥ २३६ ॥