दुर्वासा का मान भंग : सप्तद्वीप के राजा अंबरीष अत्यंत धर्मनिष्ठ थे। वे सदैव एकादशी व्रत का पालन करते थे। उनका नियम था कि वे ब्राह्मण को भोजन कराने के उपरांत ही भोजन करते थे। वे विष्णु के परम भक्त थे।
एक बार दुर्वासा ऋषि राजा का एकादशी व्रत जानकर उनके यहां पहुंचे। राजा ने उन्हें अपने यहां भोजन करने का न्योता दिया। दुर्वासा के साथ उनके सौ शिष्य भी थे। दुर्वासा ने राजा का न्योता स्वीकार कर लिया और स्नान करने चले गए। वहां उन्होंने जान-बूझकर विलंब कर दिया। इधर, एकादशी व्रत के पारण का समय निकला जा रहा था। काफी प्रतीक्षा के बाद भी जब दुर्वासा नहीं आए तो राजा ने द्वादशी आई जानकर व्रत का पारण करने का विचार किया। वे जैसे ही व्रत खोलने बैठे, दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ वहां आ धमके। वहां राजा को पारण के लिए तैयार देखकर वे रुष्ट हो गए और राजा को भला-बुरा कहने लगे। उनका केवल इतना ही दोष था कि दुर्वासा को भोजन कराए बिना उन्होंने जल पी लिया था।
क्रोध में भरकर दुर्वासा ने शाप देकर राजा को भस्म करना चाहा। तभी राजा ने अपने इष्ट भगवान विष्णु का ध्यान किया और दुर्वासा के शाप से रक्षा करने की प्रार्थना की। उसी समय वहां सुदर्शन चक्र उपस्थित हो गया, जो दुर्वासा के पीछे पड़ गया। दुर्वासा का शरीर जलने लगा। अपनी जान बचाने के लिए दुर्वासा भाग खड़े हुए। उनके शिष्य भी इधर-उधर भाग गए।
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