द्रोणाचार्य से एकलव्य की प्रार्थना : एकलव्य एक भील बालक था। धनुर्विद्या में उसकी विशेष रुचि थी। जब उसने सुना कि हस्तिनापुर में द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को धनुर्विद्या सिखाते हैं तो उसकी इच्छा उनका शिष्य बनने की हुई। मन में आशाओं के दीप जलाए हस्तिनापुर आकर वह द्रोणाचार्य से मिला। उसने आचार्य से प्रार्थना की कि वे उसे भी अपना शिष्य बना लें। | द्रोणाचार्य एकलव्य की प्रार्थना सुनकर गंभीर हो गए। यद्यपि वे बालक के विनीत आग्रह को ठुकराना नहीं चाहते थे, तथापि उन्हें विवशतावश कहना पड़ा, “वत्स! यहां केवल हस्तिनापुर के राजपुत्रों को ही शिक्षण का अधिकार है। किसी अन्य को मैं धनुर्विद्या नहीं सिखा सकता।” | द्रोणाचार्य की विवशता जानकर एकलव्य ने अश्रुपूरित दृष्टि से उन्हें देखा, उनके चरण स्पर्श किए और उनके चरणों के नीचे की एक मुट्ठी मिट्टी उठाई। वह मिट्टी लेकर एकलव्य वन में अपने निवास स्थान की ओर चल पड़ा। वहां उसने आचार्य द्रोण के चरणों के नीचे की मिट्टी को दूसरी मिट्टी में मिलाकर उनकी मूर्ति बनाई और उसके सामने धनुष-बाण चलाने का अभ्यास करने लगा।