द्रोण और द्रुपद का मैत्री-वैर : “द्रुपद! आज तुम मेरे बंदी हो। सम्पूर्ण पांचाल राज्य पर तुम्हारा नहीं मेरा अधिकार है,” द्रोणाचार्य ने व्यंग्यभरे स्वर में कहा, “बोलो, यह सत्य है न?”
“हां, यह सत्य है,”द्रुपद ने शीश झुकाकर कहा। “आज तो तुम मुझे मित्र कह सकते हो?’
द्रुपद लज्जित से सिर झुकाए मौन खड़े सब सुन रहे थे। उन्हें द्रोण को कहे एक-एक शब्द का स्मरण हो रहा था।
“द्रुपद! मित्रता का मूल्य यह है कि मैं कल तुम्हारे राजा होने पर भी तुम्हें मित्र कहता था और आज तुम रंक हो, फिर भी तुम्हें मित्र कहता हूं। मैंने तुम्हें त्राण देने का वचन दिया था, आज उसे पूरा करता हूं। जाओ, तुम किसी वैर के कारण बन्दी बनाए गए थे, किंतु मित्रता के कारण तुम्हें मुक्त किया जाता है, यह कहते हुए स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि द्रोणाचार्य ने अपने मित्र का अपमान मित्र के हित के लिए ही किया था। आचार्य ने यह कहते हुए द्रुपद की ओर से दृष्टि फेर ली, “प्रिय अर्जुन ! महाराज द्रुपद हमारे वैरी नहीं मित्र हैं। इन्हें बंधनों से मुक्त कर दो।”
गुरु के आदेश पर द्रुपद को बंधन मुक्त कर दिया गया।
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