भृगु ऋषि विष्णु लोक में : भृगु क्षीर सागर में पहुंचे, जहां विष्णु भगवान शेष-शय्या पर विश्राम कर रहे थे। निद्रा से उनकी आंखें बंद थीं और लक्ष्मी जी उनके पैरों को हौले-हौले दबा रही थीं।
भृगु ऋषि दो स्थानों से अपनी जान बचाकर भागे थे, इसलिए झुंझलाए हुए थे। मन अशांत था। ऐसी मन:स्थिति में उन्होंने सोते हुए विष्णु की छाती पर लात मार दी, “कैसा जगपालक है, दुनिया की चिंता छोड़कर आराम से सो रहा है?”
विष्णु एकदम से जाग गए। उन्होंने उठकर भृगु के चरण पकड़ लिए और दुखी होते हुए बोले, ** भगवन! मेरी छाती तो वज्र के समान कठोर है। आपका यह शरीर तपस्या के कारण दुर्बल और कोमल है। आपके पैर में कहीं चोट तो नहीं आ गई? आपने मुझे सावधान करके मुझ पर बड़ी कृपा की है। इसे स्मरण रखने के लिए आपका यह चरण आघात, चिह्न के रूप में सदैव मेरी छाती पर रहेगा।”
महर्षि ऋषि भगवान विष्णु की विनम्रता देखकर आश्चर्यचकित रह गए। अपने दुष्कर्म पर | वे पछताए। पर प्रभु मुस्करा रहे थे।
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