पुत्र के कारण माता का तिरस्कार : आठवें वर्ष में जब बालक का यज्ञोपवीत संस्कार किया गया, तब पिता ने उसे वेद मंत्रों । का उच्चारण करने को कहा। लेकिन मंत्र पढ़ने के स्थान पर वह वासुदेव-वासुदेव’ नाम का ही संकीर्तन करता रहा। इस पर माण्डूकि मुनि को क्रोध आ गया। हताश होकर वे अपने पुत्र और पत्नी को डांटने लगे, “तुम्हारी मूर्खता के कारण तुम्हारा पुत्र भी मूर्ख है। जाओ, तुम दोनों नर्क में जाओ। आज से तुम्हारा और मेरा कोई संबंध नहीं है। मैं यहां से जा रहा हूं।”
पुत्र और पत्नी का परित्याग करके माण्डूकि मुनि ने दूसरा विवाह कर लिया। दूसरी पत्नी से उनके अनेक पुत्र हुए। बड़े होकर वे सभी वेदों के प्रकांड पंडित कहलाए। उनकी प्रशस्ति सुनकर वे हर्ष से फूले नहीं समाते थे।
एक दिन इतरा ने अपने पुत्र से कहा, ‘ऐतरेय पुत्र! तेरे कारण आज मैं उपेक्षित जीवन जी रही हूं। तुम्हारे होने से भी मुझे क्या लाभ हुआ? ऐसा कब तक चलेगा पुत्र?”
माता की बात सुनकर ऐतरेय सोच में पड़ गया। कुछ देर वह एकटक भगवान विष्णु की ओर देखता रहा।
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