महिला कुष्ठ रोगियों का आवास : सन् 1950 में, संपन्न घराने की जानकी नाम की एक महिला ‘मदरहोम’ में आई। उसे कुष्ठ रोग था। उसके घर वाले उसे अपने साथ रखने को तैयार नहीं थे, जबकि उसका मन अपने घर के लिए ही तरसता रहता था। परिवार वाले उसका बराबर अपमान करते रहते थे। वह जब आई थी, तब उसके शरीर पर कीमती जेवरात थे।
उस समय कलकत्ता में कुष्ठ रोगियों की संख्या काफी बढ़ गई थी। परंतु उनके लिए न तो कोई आवास था और न कोई अस्पताल। ज्यादातर कुष्ठ रोगी हुगली नदी के किनारे पड़े रहते थे। मदर की संस्था इन रोगियों की मरहम-पट्टी और दवा-दारू के लिए उनके पास जाती थी और लौट आती थी। कुष्ठ रोगियों के लिए आवास की व्यवस्था को लेकर मदर को चिंता थी।
अपने घर वालों के व्यवहार से आहत होकर जानकी ने अपने सारे कीमती जेवर मदर को सौंपते हुए कहा, “मदर! आप कुष्ठ रोगियों के लिए कोई स्थायी आवास उपलब्ध कराने का प्रयास कीजिए। मेरे ये जेवर अगर इस काम आएं तो मुझे बहुत खुशी होगी।”
मदर ने टीटागढ़ में एक जगह देखी। वहां उन्होंने महिला कुष्ठ रोगियों का आवास बना दिया। वहीं उन्होंने रोगियों के लिए एक अस्पताल भी बनवा दिया ताकि उन्हें दवा आदि की कोई असुविधा न हो। जानकी वहां जाकर रहने लगी और वहां की औरतों में घुल-मिल गई। उसे फिर कभी अपने घर की याद नहीं आई।
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