द्रोण की पांचालराज द्रुपद से भेंट : कृपी का परामर्श मानकर वे तुरंत पांचाल राज्य की ओर चल पड़े। राजमहल के द्वार पर पहुंचकर द्रोण ने सेवक से द्रुपद को कहलवाया कि आचार्य अग्निदेव के आश्रम में उनके साथ विद्याध्ययन करने वाला उनका सहपाठी द्रोण उनसे भेंट करना चाहता है।”
कुछ क्षणों बाद सेवक ने आकर बताया, “विप्रवर ! महाराज कहते हैं कि वे बाल्यकाल की बातें विस्मृत कर चुके हैं। अत: कृपया आप उनका समय नष्ट न करें और उन्हें विश्राम करने दें।”
सेवक का उत्तर सुनकर एक पल को द्रोण स्तंभित-से खड़े रह गए, किंतु अगले ही पल क्रोध से उनका मस्तक तमतमा उठा। वे सेवक की परवाह न करते हुए तेजी से उस कक्ष में पहुंचे जिसमें महाराज द्रुपद विश्राम कर रहे थे। द्रोण ने सेवक को उस कक्ष में आते-जाते देख लिया था।
“आओ विप्रवर!” महाराज द्रुपद गंभीरता से बोले, “हमसे क्या चाहते हो?” “महाराज द्रुपद ! मैं आपका मित्र द्रोण…!”द्रोण ने अपना परिचय दिया।