द्रोण का प्रत्युत्तर : “महाराज द्रुपद!” द्रोण गंभीर स्वर में बोले, “आज से पहले मैं इस बात को केवल सुना करता था कि राजा और रंक की मित्रता नहीं होती, किंतु आज इसे प्रत्यक्ष देख रहा हूं।”
| द्रुपद हंसकर बोले, “तुम्हारे अनुभवों में वृद्धि हुई, यह जानकर हमें प्रसन्नता हुई। अब आगे बोलो, तुम क्या चाहते हो? अन्न, धन अथवा कुछ और सम्पत्ति ?”
“राजन् ! मुझे न आपका अन्न-धन चाहिए और न ही सम्पत्ति,” द्रोण क्रोध के ज्वालामुखी को पीते हुए बोले, “किंतु यह अवश्य कहना चाहूंगा कि राजा अथवा रंक जैसी सम स्थिति संसार में कभी किसी की नहीं होती। कभी दिन बड़ा होता है तो कभी रात ! अब भविष्य में जब भी आपसे भेंट होगी तो समानता के स्तर पर ही होगी और जिस द्रोण की मित्रता का तुमने अपमान किया है, वही द्रोण तुम्हें त्राण देगा…मित्रता की परिभाषा समझाएगा।” | द्रोण के इन शब्दों और उनकी आंखों में कौंध उठी विलक्षण चमक ने द्रुपद को अनजाने में भयभीत कर दिया था।
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