द्रोण बने द्रोणाचार्य : द्रोण और पितामह भीष्म के बीच पारस्परिक परिचय और शिष्टाचार के बाद पितामह बोले, ‘विप्रवर!आपने धनुर्विद्या का यह गूढ़ ज्ञान कहां से प्राप्त किया?”
द्रोण ने निस्संकोच बता दिया, ** भृगुवंशी महर्षि परशुराम से!” “ओह!”पितामह के मुख से निकला, “तब तो मैं और आप गुरु भाई हुए।” “यह जानकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई, ”द्रोण ने हर्ष प्रकट किया। ‘प्रसन्नता की इस घड़ी में मैं चाहता हूं कि मेरी और आपकी प्रसन्नता द्विगुणित हो जाए।” “मैं आपका तात्पर्य नहीं समझा । कृपया स्पष्ट कीजिए।”
“यदि आप अन्यथा न लें तो मैं कुरुवंश के राजकुमारों को आपको सौंपना चाहता हूं। आप जैसा आचार्य इन्हें कोई और नहीं मिलेगा, ”पितामह ने द्रोण के सामने प्रस्ताव रखा, “आप मेरे इस निवेदन को स्वीकार करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।”
कुछ सोचकर द्रोण ने स्वीकृति दे दी। अब वे द्रोणाचार्य हो गए थे-पांडव और कौरव कुमारों के आचार्य!