असहयोग आंदोलन : सन् 1920 में कलकत्ता अधिवेशन में गांधी जी ने असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव रखा। उसका पंडित मोतीलाल नेहरू ने तो समर्थन किया, परंतु कांग्रेस के गरम दल के नेता देशबंधुदास ने विरोध किया। अंतत: गांधी जी का प्रस्ताव पास हुआ और इस अधिवेशन से गांधी युग का सूत्रपात हो गया। एक साल के भीतर ही सारा देश गांधी जी की जय-जयकार से गूंज उठा। विद्यार्थी, वकील, अध्यापक तथा सामान्य जनता खुलकर आजादी की जंग में कूद पड़ी।
लोगों ने सरकारी उपाधियों और पदों का त्याग कर दिया, अदालतों का बहिष्कार कर दिया, सरकारी । ऋण पत्रों की खरीद बंद कर दी, शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार करके छात्र और अध्यापक स्वाधीनता की जंग में कूद पड़े, जगह-जगह विदेशी सामान और वस्त्रों की होली जलाई जाने लगी। सरकारी समारोहों, विधान सभाओं और परिषदों से नेताओं ने मुंह मोड़ लिया। स्वदेशी का व्रत लेकर खादी का प्रचार किया । जाने लगा। भाषणों में हिंदी भाषा को प्राथमिकता दी जाने लगी।
इस असहयोग आंदोलन ने भारत की सोई हुई जनता को जगा दिया। गांधी जी ने अपने
आपको पूरी तरह बदल डाला। अब वे नंगे फकीर की भांति शरीर पर एक कपड़ा, धोती और हाथ में लाठी लेकर घूमने लगे।
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