सोच समझ कर ही पग पीछे लो | Soch Samajh Kar Hi Pag Pichhe Lo
सोच समझ कर ही पग पीछे लो | Soch Samajh Kar Hi Pag Pichhe Lo : दक्षिण दिशा के महिलारोप्य नामक नगर में एक वैश्य रहता था, जिसका नाम था वर्धमान। वर्धमान ने धर्मयुक्त रीति से व्यापार में पर्याप्त धन पैदा किया था, किंतु उतने से उसे सन्तोष नहीं था। एक बार रात को लेटे हुए उसने विचार किया कि अपनी धन-सम्पत्ति को बढ़ाने के लिए उसे कोई और उपाय करना चाहिए, क्योंकि धन ही एक ऐसी वस्तु है जिससे संसार की कोई भी वस्तु प्राप्त की जा सकती हैं उसने धन कमाने के उपायों पर विचार किया। धन छ: उपायों से कमाया जाता है-भिक्षा, राजसेवा, खेती, विद्या, सूद और व्यापार से। इन छ: उपायों में उसे व्यापार ही सर्वोत्तम लगा। यही सब सोचकर वर्धमान ने अपने नगर से बाहर जाने का संकल्प किया। उसने व्यापार योग्य माल एक बैलगाड़ी में लदवाया और अपने गुरुजनों का आशीर्वाद तथा परिवारजनों का स्नेह प्राप्त कर अपने संजीवक और नंदक नाम के दो बैलों को गाड़ी में जोतकर मथुरा के लिए चल पड़ा।
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सोच समझ कर ही पग पीछे लो | Soch Samajh Kar Hi Pag Pichhe Lo : सुरक्षा की दृष्टि से उसने कई सेवक भी साथ ले लिए। मार्ग में चलते हुए जब वे यमुना के कछार में पहुंचे तो संजीवक नामक बैल का पैर दलदल में फंस गया। उसने बलपूर्वक आगे बढ़ाना चाहा तो बैल का पैर टूट गया। बैल का पैर ठीक होने की प्रतीक्षा में वैश्य वहीं पड़ा रहा। जब उसको वहां पड़े हुए तीन दिन और तीन रात हो गए तो उसके सेवकों ने समझाया कि इस प्रकार एक बैल के लिए इस बीहड़ वन में, जो हिंसक सिंह और व्याघ्र जैसे भयावह प्राणियों से भरा हुआ है, पड़े रहना ठीक नहीं है। क्योंकि कहा भी गया है कि छोटी वस्तु के लिए बड़ी वस्तु की हानि नहीं करनी चाहिए। । विवश होकर वैश्य को यह परामर्श स्वीकार करना पड़ा। उसने बैल की देखभाल के लिए दो सेवक वहीं छोड़े और शेष सेवकों के साथ एक ही बैल के सहारे आगे चल दिया । वैश्य के जाने के बाद, वन की बीहड़ता को देख दोनों सेवक भयभीत हो गए और बैल को वहीं छोड़ दोनों भाग गए। दो दिन उन्होंने इधर-उधर व्यतीत किए और फिर वैश्य के पास जाकर झूठ बोल दिया कि बैल तो दूसरे ही दिन मर गया और वे उसका विधिवत दाहकर्म कर आए हैं।
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सोच समझ कर ही पग पीछे लो | Soch Samajh Kar Hi Pag Pichhe Lo : बैल के मरने की खबर सुनकर वैश्य बहुत दुखी हुआ, किंतु विधि के विधान के सम्मुख वह कर भी क्या सकता था ! मन में संतोष धारण कर उसने अपनी यात्रा जारी कर दी। उधर, संजीवक को भूख-प्यास लगी तो वह कोशिश करके उठा, फिर धीरे-धीरे चलकर यमुना के तट पर पहुंच गया। उस तट पर घास चरने वाले पशुओं का अभाव होने के कारण वहां बहुत बड़ी मात्रा में हरी-हरी घास थी। उस हरी घास ‘ का सेवन और यमुना के शीतल जल का पान करता हुआ संजीवक कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गया। इस प्रकार निर्द्धन्द्ध विहार करता हुआ वह शिवजी के नंदी बैल की तरह हृष्ट-पुष्ट हो गया। एक दिन जब संजीवक यमुना तट पर हरी-हरी घास चरते हुए निर्द्धन्द्धता से हुंकारें मार रहा था तो उसी समय पिंगलक नाम का एक सिंह वहां पानी पीने आया। दूर से ही उसने संजीवक की हुंकारें सुनीं तो वह डर गया और झाड़ियों में जा छिपा। संकेत करके उसने साथ आए अपने सेवकों, भालू, व्याघ्र आदि से अपनी व्यूह-रचना करा ली, ताकि कोई उसके पास न पहुंच सके। पिंगलक के साथ दो गीदड़ भी थे। उनके नाम थे, करटक और दमनक ।
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सोच समझ कर ही पग पीछे लो | Soch Samajh Kar Hi Pag Pichhe Lo : ये दोनों गीदड़ कभी पिंगलक के मंत्री हुआ करते थे, किंतु अपनी दुष्टता के कारण उन्हें पदच्युत होना पड़ा था। तब से यह दोनों इसी प्रयास में रहते थे कि किस प्रकार अपने स्वामी को प्रसन्न करके खोया हुआ पद प्राप्त किया जाए। वह प्रायः शेर के पीछे-पीछे रहते थे और शेर द्वारा छोड़े शिकार को खाकर अपनी क्षुधा शांत करते थे | उस समय अपने स्वामी को जल पीने की अपेक्षा, भयभीत होकर झाड़ियों में छिपते देख उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। दमनक नामक गीदड़ अपने साथी से बोला – ‘करटक भाई। हमारा राजा प्यासा होने पर भी यमुना तट पर न जाकर यहां झाड़ियों में छिपकर बैठ गया है, इसका क्या कारण हो सकता है ?’ करटक ने उत्तर दिया – ‘दमनक भाई ! हमें इससे क्या? बिना उद्देश्य के कौतूहलवश कोई काम नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसा करता है वह उसी प्रकार विनष्ट हो जाता है, जैसे वह कील उखाड़ने वाला बंदर विनष्ट हुआ था।’ ‘यह कील उखाड़ने वाले बंदर की क्या कहानी है भाई ?’ दमनक ने पूछा। करटक बोला – सुनाता हूं, सुनो।’
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