मुर्ख की मुर्खता से पिता का अंत | Murkh Ki Murkhta Se Pita Ka Ant
मुर्ख की मुर्खता से पिता का अंत | Murkh Ki Murkhta Se Pita Ka Ant : किसी नगर में धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्र रहते थे। दोनों विदेश चले गए और देश-देशांतरों में घूमकर दोनों ने काफी धन कमा लिया। जब वे वापस आ रहे थे तो नगर के पास पहुंचकर पापबुद्धि ने सलाह दी कि इतने धन को अपने बंधु-बांधवों के पास नहीं ले जाना चाहिए। इसे देखकर उन्हें ईष्य होगी, लोभ होगा। इसलिए इस धन का बड़ा भाग यहीं कहीं जमीन में गाड़ देते हैं। जब आवश्यकता होगी, लेते रहेंगे। धर्मबुद्धि उसकी बात मान गया। जंगल में एक स्थान पर उन्होंने वह धन जमीन में गाड़ दिया और कुछ धन लेकर वे दोनों अपने-अपने घर जा पहुंचे। लेकिन पापबुद्धि के मन में तो पाप समाया हुआ था। एक दिन अवसर पाकर वह वन में गया और सारा धन निकाल लाया। फिर एक दिन पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि के पास जाकर कहा—‘मित्र ! मेरा धन तो समाप्त हो गया है। तुम कहो तो उस स्थान पर चलकर कुछ धन निकालकर ले आएं?’
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मुर्ख की मुर्खता से पिता का अंत | Murkh Ki Murkhta Se Pita Ka Ant : धर्मबुद्धि उसके साथ चलने को तैयार हो गया। वहां जाकर जब उन्होंने उस स्थान की खोदा तो जिस पात्र में धन रखा था, वह खाली पाया। पापबुद्धि ने वहीं पर अपना सिर पीटना आरंभ कर दिया। उसने धर्मबुद्धि पर आरोप लगाया कि उसने ही वह धन चुराया है। उसने कहा कि वह जो धन लेकर गया है उसका आधा भाग उसको दे दे, अन्यथा वह राजा के पास जाकर निवेदन करेगा | धर्मबुद्धि को यह सुनकर क्रोध आ गया। उसने कहा-‘मेरा नाम धर्मबुद्धि है। मेरे सामने इस तरह की बातें फिर कभी न कहना। मैं इस प्रकार की चोरी करना पाप समझता हूं।’ इस प्रकार दोनों के मध्य विवाद बढ़ गया। दोनों व्यक्ति न्यायालय में चले गए और एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर एक-दूसरे को दोषी सिद्ध करने लगे।
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मुर्ख की मुर्खता से पिता का अंत | Murkh Ki Murkhta Se Pita Ka Ant : न्यायाधीशों ने जब सत्य जानने के लिए दिव्य परीक्षा का निर्णय दिया तो पापबुद्धि बोल उठा- – ‘यह उचित न्याय नहीं है। सर्वप्रथम लेखबद्ध प्रमाणों को देखना चाहिए, उसके अभाव में साक्षी दी जाती है, और जब साक्षी भी न मिले तो फिर दिव्य परीक्षा दी जाती है। मेरे इस विवाद में अभी वन देवता साक्षी हैं। वे इसका निर्णय कर देंगे। न्ययाधीशों ने कहा-‘ठीक है, ऐसा ही कर लेते हैं।’ इस प्रकार अगले दिन प्रात:काल उस वृक्ष के समीप जाने का निश्चय किया गया। उन दोनों को भी साथ चलने की कहा गया |
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मुर्ख की मुर्खता से पिता का अंत | Murkh Ki Murkhta Se Pita Ka Ant : घर पहुंचकर पापबुद्धि ने अपने पिता से कहा-“मैंने धर्मबुद्धि के बहुत-से धन का अपहरण कर लिया है। अगर आप मेरे पक्ष में गवाही दे दें तो मेरे प्राण और धन, दोनों बच जाएंगे।’ उसका पिता पुत्रमोह में उसके लिए यह कहने को तैयार हो गया। तब पापबुद्धि ने अपने पिता से कहा-‘जंगल में जहां धन गड़ा था वहां एक शमी का वृक्ष है। उस वृक्ष में एक खोखल है। आप उस खोखल में जाकर छिप जाओ। जब प्रात: हम लोग राजपुरुषों के साथ वनदेवता की गवाही लेने आएं तो आप उस पेड़ में छिपे हुए कह देना कि धर्मबुद्धि चोर है।’ जैसा पुत्र वैसा पिता। पापबुद्धि का पिता उसी रात उस वृक्ष के खोखल में जाकर बैठ गया। दूसरे दिन प्रात:काल पापबुद्धि न्यायाधीशों तथा धर्मबुद्धि को लेकर उस स्थान पर गया, जहां धन गाड़ रखा था। वहां पहुंचकर पापबुद्धि ने घोषणा की-‘समस्त देवगण मनुष्य के कर्मों के साक्षी हैं। हे वनदेवता, हम दोनों में से जो चोर हो,
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मुर्ख की मुर्खता से पिता का अंत | Murkh Ki Murkhta Se Pita Ka Ant : आप उसका नाम बता दीजिए।’ खोखल में छिपे पापबुद्धि के पिता ने यह सुनकर कहा-‘सज्जनो ! मेरी बात आप ध्यानपूर्वक सुनिए। उस धन को धर्मबुद्धि ने ही चुराया है।’ यह सुनकर सब आश्चर्यचकित रह गए। तब धर्मबुद्धि के इस अपराध के लिए उसके दंड का विधान देखा जाने लगा | अवसर पाकर धर्मबुद्धि ने इधर-उधर से घास-फूंस एकत्रित की, कुछ लकड़ियां भी चुनीं और उस खोखल में डालकर उसमें आग लगा दी। अग्नि में झुलसता पापबुद्धि का पिता कुछ देर तक तो सहन करता रहा; किंतु जब असह्म हो गया तो अपना अधजला शरीर और फूटी आंखें लेकर खोखल से बाहर निकल आया। उसे देख धर्माधिकारियों ने कहा-‘‘आप कौन हैं और आपकी यह दशा किस प्रकार हुई ?
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मुर्ख की मुर्खता से पिता का अंत | Murkh Ki Murkhta Se Pita Ka Ant : पापबुद्धि के पिता ने तब सारा वृतांत सुना दिया। धर्माधिकारियों ने जो दंड व्यवस्था धर्मबुद्धि के लिए निश्चित की थी, वह पापबुद्धि पर लागू करके उसको उसी शमी के वृक्ष पर लटका दिया। धर्मबुद्धि की प्रशंसा करते हुए धर्माधिकारियों ने कहा-‘चतुर व्यक्ति को उपाय के साथ ही अपाय को भी सोच लेना चाहिए। लाभ और हानि इन दोनों पक्षों पर विचार न करने पर एक मूर्ख बगुले के समक्ष ही उसके सभी अनुयायियों को एक नेवले ने मार डाला था।’ धर्मबुद्धि ने पूछा-‘वह कैसे ?’ धर्माधिकारी बोले-‘सुनाते हैं, सुनो।’
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