ज्ञानी बना अज्ञानी | Gyani Bna Agyani
ज्ञानी बना अज्ञानी | Gyani Bna Agyani : किसी नगर में चार ब्राह्मण कुमार निवास करते थे। उनमें से तीन को तो शास्त्रों का बहुत ज्ञान था, किन्तु थे वे बुद्धिविहीन । उनका चौथा भाई विद्वान तो नहीं था किन्तु वह लोक-व्यवहार में चतुर।
एक दिन उन्होंने परस्पर बैठकर मंत्रणा की कि हममें से तीन तो विद्वान हैं, और चौथा चतुर है, फिर भी हम लोग सामान्य नागरिकों से भी निम्न कोटि का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उस विद्या से, क्या लाभ जिससे देश-विदेश जाकर राजाओं को संतुष्ट करके धन नहीं कमाया जा सके। यही सोचकर उन्होंने निश्चय किया कि शीघ्र ही धनोपार्जन हेतु उन्हें विदेश चले जाना चाहिए। यह भी निश्चय किया गया कि अपनी यात्रा पूर्व दिशा की ओर की जाए। इस निश्चय के साथ एक दिन वे चारों घर से निकल पड़े। दिन-भर चलने के बाद चारों विश्राम करने के लिए एक स्थान पर बैठे तो उनमें जो सबसे बड़ा था, कहने लगा-‘देखो भाई! हमारे सबसे छोटे भाई को कोई विद्या तो आती नहीं, फिर हम उसको अपनी विद्या से कमाए धन में से हिस्सा क्यों दें ? राजाओं से हमें जो धन प्राप्त होगा वह तो हमारी विद्या से अर्जित हुआ ही होगा। फिर हम उसमें से अपना हिस्सा क्यों दें?
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ज्ञानी बना अज्ञानी | Gyani Bna Agyani : इससे अच्छा तो यही रहेगा कि यह वापस लौट जाए।’ दूसरे भाई ने भी उसकी हां में हां मिलाई। बड़ा भाई सबसे छोटे भाई से कहने लगा-तुमने हमारा निर्णय जान लिया सुबुद्धि। अत: अच्छा यही रहेगा कि वापस घर लौट आओ ||” लेकिन तीसरा भाई कहने लगा-‘मैं समझता हूं, यह उचित नहीं होगा। बचपन से लेकर अब तक हम साथ-साथ ही खेले-खाए हैं। अब इतनी दूर आकर इसे वापस भेजना ठीक नहीं है। कहा भी गया है कि केवल एक ही के काम आने वाले धन से क्या लाभ ? और अपने पराए का विचार तो संकुचित भावना वाले व्यक्ति किया करते हैं, उदार व्यक्तियों के लिए तो सारा जगत ही अपना होता है। फिर यह तो हमारा सगा भाई है। इसे साथ ही चलने दो।’ तीसरे भाई के कथन पर दोनों बड़े भाइयों ने कोई प्रतिवाद न किया। अत: चारों फिर आगे की ओर चल पड़े। अगले दिन जब वे चारों वन के मार्ग से जा रहे थे तो एक स्थान पर उन्हें हड़ियों का एक ढेर दिखाई पड़ा।
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ज्ञानी बना अज्ञानी | Gyani Bna Agyani : उसे देखकर एक भाई बोला-‘लगता है यह कोई मरा हुआ वन्य पशु है। क्यों न आज अपनी विद्या की परीक्षा इसी पर कर लें। इस मरे हुए जीव को जीवित करना चाहिए।’ यह कहकर उसने उन हड़ियों को इकट्ठा किया और उन्हें यथास्थान जोड़ दिया | दूसरे भाई ने अपनी विद्या से उसमें चर्म, मांस और रक्त का संचार भी कर दिया। जब तीसरे भाई ने अपनी विद्या से उसमें प्राणों का संचार करना चाहा तो छोटा भाई सुबुद्धि बोला-‘ठहरो भैया ! पहले यह तो देख लो कि यह जीव है , कौन-सा ?’ यह सुनकर तीनों उसकी ओर प्रश्न-भरी दृष्टि से देखने लगे। सुबुद्धि बोला-‘यह सिंह है, भैया । तुम लोग एक सिंह को जीवित कर रहे हो।’ ‘तो क्या हुआ ?’ एक भाई ने पूछा ‘होगा यह छोटा भाई बोला – कि यह जीवित होते ही हम चारों को खा जाएगा।’ यह सुनकर तीसरे भाई को गुस्सा आ गया। वह बोला-‘अरे मूर्ख ! इन दोनों ने अपनी विद्या का चमत्कार दिखा दिया। अब मैं अपनी विद्या को विफल नहीं होने दूंगा।’
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ज्ञानी बना अज्ञानी | Gyani Bna Agyani : सुबुद्धि बोला-‘यदि ऐसा है तो थोड़ी देर ठहर जाओ। पहले मैं किसी वृक्ष पर चढ़ जाऊं, तब अपनी विद्या का प्रयोग करना।’ यह कहकर वह एक वृक्ष की ऊंची शाखा पर चढ़कर बैठ गया। तीसरे भाई ने अपनी विद्या से सिंह को जीवित कर दिया। जीवित होते ही सिंह ने अंगड़ाई ली और पास खड़े तीनों भाइयों को एक साथ दबोच लिया। तीनों का भक्षण कर सिंह वन में प्रविष्ट हो गया और छोटा भाई अपने बड़े भाइयों की नादानी पर दुखी होता हुआ घर लौट आया। उसे भाइयों के मरने का शोक तो था किन्तु वह कर भी क्या सकता था। इसीलिए तो कहा गया है कि विद्या की अपेक्षा बुद्धि उत्तम होती है।
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ज्ञानी बना अज्ञानी | Gyani Bna Agyani : यह कथा सुनाकर सुवर्णसिद्ध कहने लगा-‘शास्त्रों में ठीक ही कहा गया है कि शास्त्रों में कुशल होने पर भी लोक-व्यवहार में अनभिज्ञ रहने वाला व्यक्ति उपहास का पात्र ही बनता है। मेरे मना करने पर भी तुम नहीं माने। शास्त्रों के इतने ज्ञाता होने पर भी तुम्हारे मन में लालच समाया रहा। ज्ञानी होने पर भी जो व्यक्ति लोक-व्यवहार में कुशल नहीं होता, उसकी यही दशा होती है।’ यह सुनकर चक्रधारी बोला-तुम्हारा यह कहना निरर्थक है। क्योंकि जब भाग्य प्रतिकूल होता है तो बुद्धिमान व्यक्ति को भी कष्ट उठाना पड़ता है।
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ज्ञानी बना अज्ञानी | Gyani Bna Agyani : भाग्य अनुकूल होने पर मूर्ख व्यक्ति भी आनंद करता है। भाग्य द्वारा सुरक्षित वस्तु बिना किसी सुरक्षा के भी बची रहती है और भाग्य विपरीत होने पर सुरक्षित वस्तु भी नष्ट हो जाया करती है। इसलिए इसमें दोष मेरा नहीं, मेरे भाग्य का है।’ तब सुवर्णसिद्ध ने उसे उत्तर दिया-‘आपकी बात किसी सीमा तक ठीक ही है किन्तु लोभ तो व्यक्ति को कभी करना ही नहीं चाहिए। लोभी व्यक्ति लोभ में पड़कर कभी-कभी अपनी मृत्यु को भी आमंत्रित कर लेता है। लोभ के वशीभूत होकर अपने मित्र का कहा न मानने पर एक गधे की ऐसी ही हालत हो गई थी। चक्रधारी ने पूछा-‘गधे की क्या कहानी है ?’ सुवर्णसिद्ध ने तब उसे यह कहानी सुनाई।
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