दन्तिल सेठ की कथा | Dantil Ki Katha

दन्तिल सेठ की कथा | Dantil Ki Katha : वर्धमान नामक नगर में दन्तिल नाम का एक आभूषणों का व्यापारी रहता था। दन्तिल ने अपनी व्यवहारकुशलता से न केवल नगरवासियों का मन जीत लिया था, अपितु वहां के राजा को भी प्रसन्न कर रखा था। नगर में उसके समान कोई चतुर व्यक्ति नहीं था। वैसे तो कहावत यही है कि जो व्यक्ति राजा का हित करता है, वह समाज की दृष्टि में हीन होता है, और जो समाज का हितैषी होता है, राजा उससे द्वेष करता है परंतु दन्तिल इसका अपवाद था।

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दन्तिल सेठ की कथा | Dantil Ki Katha : इस प्रकार समय बीत रहा था कि दन्तिल की कन्या का विवाह निश्चित हो गया | उस अवसर पर सेठ ने सारी प्रजा और राजकर्मचारियों को आमंत्रित कर उनका आदर-सत्कार किया | उस विवाह में राजा और रानी के साथ – साथ राजभवन के कर्मचारी भी आए थे। उनमें राजभवन में झाडू देने वाला गोरंभ भी था। उस अवसर पर गोरंभ किसी ऐसे उच्च आसन पर बैठ गया जो उसके लिए नहीं था। नगर सेठ ने यह देखा तो उसे अपमानित कर वहां से निकाल दिया। गोरंभ के लिए यह अपमान असह्य हो गया । उसने मन-ही-मन निश्चय कर लिया कि वह सेठ से इस अपमान का बदला अवश्य चुकाएगा और उसे राजा की नजरों में गिराकर ही दम लेगा। एक दिन प्रभात के समय राजा के शयनकक्ष में झाडू लगाते समय गोरंभ यूं बड़बड़ाने लगा, जैसे वह स्वयं से ही बातें कर रहा हो – ‘देखो दन्तिल कितना भ्रष्ट हो गया है कि अब महारानी तक का आलिंगन करने लगा है।

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दन्तिल सेठ की कथा | Dantil Ki Katha :  ‘राजा ने जब यह सुना तो हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसने गोरंभ से पूछा – ‘गोरंभ ! क्या सचमुच दन्तिल ने महारानी का आलिंगन किया था? गोरंभ बोला – ‘महाराज ! मैं रात – भर जुआ खेलता रहा था, इस कारण अब मुझे बड़ी नींद आ रही है। उस नींद के झोंके में मैं क्या कुछ बड़बडा गया, मुझे स्वयं इसकी याद नहीं है।’ राजा विचार करने लगा कि गोरंभ की तरह दन्तिल भी महल में निबधि रूप से आता – जाता रहता है। हो सकता है गोरंभ ने कभी महारानी को दन्तिल के साथ आलिंगनबद्ध होते देख लिया हो, अन्यथा उसके मुंह से ऐसी बात क्यों निकलती ! वह सोचने लगा कि स्त्रियों के विषय में तो संदेह की कोई बात ही नहीं। वे एक ही समय में एक व्यक्ति से बातचीत करती हैं तो उसी समय उनके मन में दूसरा व्यक्ति समाया हुआ होता है। स्त्रियों के हृदय का भाव जानना बहुत कठिन है। इस प्रकार राजा के मन में स्त्रियों के विषय में अनेक प्रकार के भाव उठने लगे।

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दन्तिल सेठ की कथा | Dantil Ki Katha : जिसका परिणाम यह निकला कि राजा ने दन्तिल का महल में आनानिषिद्ध कर दिया। राजा के इस व्यवहार से दन्तिल को बड़ी चिन्ता हुई। वह विचार करने लगा तो उसने पाया कि कौए में पवित्रता, जुआरी में सत्यता, सर्प में क्षमा, स्त्रियों में काम-शांति, कातर में धैर्य, नशेबाज में विवेक और राजा में मैत्री भाव किसने देखा या सुना है। ‘मैंने इसके अथवा इसके किसी प्रिय का कभी कोई अनिष्ट तो किया नहीं, फिर भी यह राजा मुझ पर अप्रसन्न क्यों हुआ ?’ दन्तिल राजा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से एक बार राजभवन की ओर गया तो द्वारपाल ने उसे रोक दिया। गोरंभ ने जब यह देखा तो उसने कहा – ‘भाई। ध्यान रखना, यह सेठ तो राजा का विशेष कृपापात्र है। कहीं इसे नाराज करके
तुम भी मेरी तरह ही धक्के मारकर न निकाल दिए जाओ।”

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दन्तिल सेठ की कथा | Dantil Ki Katha : दन्तिल ने सुना तो उसका माथा ठनका। उसे विश्वास हो गया कि राजा को गोरंभ ने ही भड़काया है। वह सोचने लगा कि राजा की सेवा में नियुक्त व्यक्ति चाहे कितना ही कुलहीन, मूर्ख और राजा द्वारा असम्मानित क्यों न हो, लोक में उसका आदर होता है। उसे गोरंभ का अपने द्वारा किया गया अपमान याद हो आया । दन्तिल राजभवन के द्वार से वापस आ गया। रात को उसने गोरंभ को आदरपूर्वक अपने घर बुलवाया और उसका खूब स्वागत – सत्कार किया। विदा करते समय उससे अपने पिछले व्यवहार की क्षमा मांगी तो गोरंभ बोला- “आप चिन्ता न कीजिए सेठ। राजा किस प्रकार आपको अनुगृहीत करता है, यह आप अब मेरी बुद्धि के चमत्कार से देखेंगे|

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दन्तिल सेठ की कथा | Dantil Ki Katha : किसी ने ठीक ही कहा है कि तराजू की डंडी की भांति ही क्रूर व्यक्तियों का स्वभाव होता है | वे तनिक – से भार से कभी ऊपर हो जाते हैं तो कभी नीचे। इस प्रकार दूसरे दिन जब गोरंभ प्रात:काल के समय राजा के शयनकक्ष में सफाई करने गया तो पहले की भांति ही बड़बड़ाने लगा – ‘हमारे महाराज भी बड़े विचित्र हैं, मलत्याग करते वक्त भी ककड़ी खाते रहते हैं।’ राजा ने सुना तो वह गुस्से से बोला – ‘गोरंभ ! यह क्या बकवास कर रहा है ? तूने कभी मुझको ऐसा करते देखा था ?’ गोरंभ ने फिर उसी प्रकार कह दिया कि वह रात – भर जुआ खेलता, जागता रहा है इसलिए नींद में वह क्या कुछ बड़बड़ा गया, उसे कुछ मालूम नहीं। तब राजा ने विचार किया कि उसने कभी ऐसा कृत्य नहीं किया फिर भी इस मूर्ख ने इस प्रकार की बात मुख से निकाली,

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दन्तिल सेठ की कथा | Dantil Ki Katha : तब निश्चय ही दन्तिल के बारे में भी इसने इसी प्रकार कहा होगा। यह विचार आते ही उसकी पश्चाताप होने लगा। उसने दन्तिल को सम्मानपूर्वक राजभवन में बुलवाया और उसका खूब स्वागत – सत्कार किया। दन्तिल का राजभवन में पुनः आवागमन होने लगा। यह कथा सुनाकर दमनक ने संजीवक से कहा – ‘इसलिए मैं कहता हूं कि गर्व के कारण जो छोटे-बड़े सभी राजसेवकों का सत्कार नहीं करता उसे दन्तिल की तरह पदच्युत होकर अपमान सहन करना पड़ता है। संजीवक बोला-मित्र ! तुम ठीक कहते हो। मैं तुम्हारे कथनानुसार ही कार्य करूगा !’ तदन्तर दमनक संजीवक को लेकर पिंगलक के समक्ष उपस्थित हुआ और उसे प्रणाम करके कहने लगा-‘महाराज ! संजीवक आपकी सेवा में उपस्थित है। अब आप जो उचित समझे, कीजिए।’ संजीवक ने भी पिंगलक को प्रणाम किया और उसके सम्मुख खड़ा हो गया।

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दन्तिल सेठ की कथा | Dantil Ki Katha : पिंगलक ने उसे अपने समीप बैठाते हुए कहा – ‘कहिए मित्र ! आप कुशल से तो हैं ? आप कहां से पधारे हैं ?’ पिंगलक से आश्वासन पाकर संजीवक ने अपनी आद्योपान्त कथा उसको सुना दी। पिंगलक ने उसकी कथा सुनकर उसे आश्वस्त कर दिया। फिर अपना राजकाज दमनक और करटक के जिम्मे सौंपकर स्वयं संजीवक के साथ रहकर मौजमस्ती करने लगा। इसका परिणाम यह निकला कि सिंह शिकार करने में लापरवाही बरतने लगा। वह अपनी आवश्यकता – भर के लिए शिकार करता | उस पर आश्रित मांसभोजी प्राणी भूखे रहने लगे जो उनके लिए एक चिन्ता का विषय बन गया। कहते हैं कि जो राजा अपने सेवकों को वेतन देने में कभी देर नहीं करता, उसके सेवक डांटने – फटकारने पर भी कभी उसको छोड़कर नहीं जाते। किंतु पिंगलक तो इसके विपरीत आचरण कर रहा था। अत: भूख से पीड़ित दमनक और करटक ने परस्पर विचार – विमर्श किया।

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दन्तिल सेठ की कथा | Dantil Ki Katha : वे सोचने लगे कि जब भगवान शंकर के गले में लिपटा सर्प गणेशजी के वाहन चूहे को खाना चाहता है और जब सर्प मारकर खाने वाले मोर को पार्वती का वाहन सिंह खाने की इच्छा करता है तो फिर वे ही यह अहिंसा का नाटक क्यों कर रहे हैं ? ‘दमनक कहने लगा – ‘भाई करटक ! राजा की दृष्टि में हम तो कुछ रहे ही नहीं। उसके लिए अब बस संजीवक ही है। भोजन न मिलने के कारण शेष सेवक तो राजा का साथ छोड़ ही चुके हैं। मैं समझता हूं, हमें राजा को समझाना चाहिए। इस समय यही हमारा कर्तव्य है |” करटक ने उसकी बात पर सहमत होते हुए कहा-‘इस हरी घास चरने वाले बैल को तुम ही राजा के पास लाए हो, अब तुम्हीं इस समस्या को सुलझाओ।” ‘ठीक कहते हो भाई।’ दमनक बोला-‘‘यह मेरा ही दोष है। हमारी स्थिति तो अब वैसी ही है जैसे मेढ़ों के युद्ध में श्रृंगालों की। दूसरों का काम करने में दूती की और आसाढ़मूर्ति की जो हालत हुई थी, लगभग वैसी ही हालत इस वक्त हमारी है। ‘ ‘दूती और आसाढ़मूर्ति के साथ क्या हुआ था मित्र ?’ करटक ने पूछा। दमनक बोला – ‘सुनाता हूं, सुनो।’

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Hind Patrika

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