संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi

संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi

संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi : किसी नगर में तीक्ष्ण विशाण’ नाम का एक सांड रहता था। बहुत उन्मत होने के कारण उसे किसान ने खुला छोड़ दिया था। तब से वह जंगल में मतवाले । हाथी की तरह उन्मुक्त भाव से बेरोक-टोक घूमा करता था।
उसी जंगल में प्रलोमक नाम का एक गीदड़ भी था। एक दिन वह अपनी पत्नी के साथ नदी के किनारे बैठा था | तभी वह सांड वहां पानी पीने आया।

सांड के मांसल कंधों पर लटकते हुए मांस को देखकर गीदड़ी ने गीदड़ से कहा-‘स्वामी ! इस सांड की लटकती हुई लोथ को देखो, न जाने किस दिन यह जमीन पर गिर जाए। तुम इसके पीछे-पीछे चले जाओ, जब यह जमीन पर गिरे, इसे ले आना। गीदड़ ने उत्तर दिया-‘प्रिये ! न जाने यह लोथ कब गिरे ? गिरे भी या नहीं। मैं कब तक इसका पीछा करूंगा ! इस व्यर्थ के काम में मुझे मत लगाओ।

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संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi

संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi : हम यहां चैन से बैठे हैं। जो चूहे इस रास्ते से आएंगे, उन्हें मारकर ही हम भोजन कर लेंगे। तुम्हें यहां अकेली छोड़कर चला गया तो क्या पता कोई अन्य गीदड़ यहां आकर हमारे घर पर अधिकार जमा ले। अनिश्चित लाभ की आशा में निश्चित वस्तु का परित्याग कभी अच्छा नहीं होता।’ गीदड़ी बोली – ‘मैं नहीं जानती थी कि तुम इतने कायर और कामचोर हो। तुममें तो तनिक भी उत्साह नहीं है। जो व्यक्ति थोड़े – से धन से संतुष्ट हो जाता है, वह उस थोड़े से धन को भी गंवा बैठता है। इसके अतिरिक्त अब मैं चूहों के मांस से ऊब गई हूं। सांड के ये मांस – पिंड अब गिरने ही वाले दिखाई देते हैं, इसलिए अब इसका पीछा करना चाहिए।’ गीदड़ी के आग्रह पर गीदड़ को सांड के पीछे जाना पड़ा। किसी ने सच ही कहा है कि पुरुष तभी तक प्रभु होता है जब तक उस पर स्त्री का अंकुश नहीं पड़ता। स्त्री का हठ पुरुष से सब कुछ करा देता है। तब गीदड़ और गीदड़ी दोनों सांड के पीछे-पीछे घूमने लगे।

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संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi : उनकी आंखें हरदम सांड के लटकते मांस-पिंड पर ही लगी रहती थीं, लेकिन वह मांस-पिंड ‘अब गिरा’ कि ‘तब गिरा’ लगते हुए भी गिरता नहीं था। इस तरह जब पंद्रह दिन व्यतीत हो गए तो गीदड़ ने गीदड़ी से कहा – ‘प्रिये ! न मालूम यह मांस-पिंड गिरे भी या नहीं, इसलिए अब इसकी आशा छोड़कर अपनी राह ली।’ यह कथा सुनाकर सोमिलक ने कहा – ‘इसलिए कहता हूं कि इस संसार में धन की महिमा अपरंपार है। मैं उस गीदड़ – गीदड़ी की तरह आशावादी बनकर नहीं जीना चाहता हूं। मैं धन चाहता हूं, ताकि अपने वर्तमान को संवारकर अच्छे ढंग से जी सकूं।’ सोमिलक की बात सुनकर उस अदृश्य पुरुष ने कहा-‘‘यदि यही बात है और धन की इच्छा ही प्रबल है तो तुम फिर वर्धमानपुर चले जाओ। वहां दो वैश्य पुत्र हैं। उनमें से एक का नाम है गुप्त धन और दूसरे का नाम है उपमुक्त धन। इन दोनों प्रकार के धनों का स्वरूप जानकर तुम किसी एक का वरदान मांगना। यदि तुम उपभोग की योग्यता के बिना धन चाहोगे तो तुम्हें गुप्त धन दे दूंगा और यदि खर्च के लिए धन चाहोगे तो उपमुक्त धन दे ढूंगा।’ इतना कहकर वह अदृश्य पुरुष विलुप्त हो गया। सोमिलक उसके आदेशानुसार वापस वर्धमानपुर की ओर लौट चला

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संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi : सोमिलक जब वर्धमान नगर पहुंचा, तब तक शाम हो चुकी थी। पूछता-पाछता वह गुप्त धन के घर चला आया, किंतु घर पर किसी ने भी उसका स्वागत-सत्कार न किया। इसके विपरीत उसे बुरा-भला कहकर गुप्त धन और उसकी पत्नी ने घर से बाहर धकेलना चाहा। किंतु सोमिलक भी अपने संकल्पों का पक्का था। सबके विरुद्ध होते हुए भी वह घर में घुसकर जा बैठा। भोजन के समय उसे गुप्त धन ने रूखा-सूखा भोजन दे दिया, जिसे खाकर वह वहीं सो गया। स्वप्न में उसने फिर भाग्य और पौरुष को देखा। वे परस्पर बातें कर रहे थे। उनमें से एक कह रहा था-‘अरे पौरुष ! तुमने गुप्तधन को इतना धन क्यों दे दिया है कि उसने सोमिलक को भोजन भी खिला दिया ?’ पौरुष ने उत्तर दिया-‘इसमें मेरा क्या दोष है ? मुझे तो मनुष्य के हाथों धर्म-पालन करवाना है। उसका फल देना तो तुम्हारे अधीन है।’ दूसरे दिन गुप्त धन पेचिश के कारण बीमार हो गया और उसे उपवास करना पड़ा। इस तरह सोमिलक को खिलाए अन्न की पूर्ति हो गई। अगले दिन सोमिलक उपमुक्त धन के घर गया।

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संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi :  उपमुक्त धन ने उसका खूब स्वागत-सत्कार किया। उसे खाने के लिए उत्तम भोजन दिया और सोने के लिए गद्देदार शैया का प्रबंध कर दिया। उस रात सोते-सोते सोमिलक ने फिर दोनों देवों की बातें सुनीं। भाग्य कह रहा था-‘हे पौरुष ! उपमुक्त धन ने सोमिलक के स्वागत-सत्कार पर बहुत-सा धन व्यय कर दिया है। अब इसकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी ?’ पौरुष ने उत्तर दिया-‘‘हे भाग्य ! सत्कार के लिए उससे धन व्यय करवाना मेरा काम था। इसका फल देना तुम्हारे अधीन है।’ सुबह होने पर सोमिलक ने देखा कि राजदरबार से एक राजपुरुष आकर उपमुक्त धन को खजाने से लाया धन भेंट कर रहा था। यह देखकर सोमिलक ने विचार किया कि संचय रहित उपमुक्त धन ही श्रेष्ठ है। जिस धन का दान कर दिया जाए या सत्कार्यों में व्यय कर दिया जाए, वह संचित धन की अपेक्षा बहुत अच्छा होता है।

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संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi :  मंथरक ने यह कथाएं सुनाकर हिरण्यक से कहा कि इस कारण आपको भी चिंता नहीं करनी चाहिए। आपका गड़ा धन चला गया तो जाने दो, भोग के बिना उसका उपयोग भी क्या था ? उपार्जित धन का सबसे अच्छा संरक्षण यह है कि उसका दान कर दिया जाए। शहद की मक्खियां इतना मधु संचय करती हैं, किंतु उसका उपभोग नहीं कर सकतीं। ऐसे संचय का आखिर लाभ ही क्या है ? मंथरक कछुआ, लघुपतनक कौआ और हिरण्यक चूहा वहां बैठे इसी प्रकार की बातें कर रहे थे कि तभी कहीं से चित्रांग नाम का एक हिरण किसी शिकारी से बचने के लिए दौड़ता हुआ तालाब के किनारे आ पहुंचा। उसे देखकर कौआ तो उड़कर वृक्ष की डाल पर जा बैठा, चूहा पास के कुश की जड़ों में घुस गया

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संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi : और कछुआ तालाब के पानी में सरक गया। हिरण भयभीत भाव से इधर-उधर देख रहा था। उसे देखकर कौए ने मंथरक की आवाज देकर बुला लिया। उसने कहा-‘यह कोई मनुष्य नहीं, हिरण है। तालाब पर पानी पीने आया है। इससे भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं।’ कछुआ बोला-‘तुम्हारा यह कहना तो ठीक है कि यह मृग है, मानव नहीं। किंतु जिस प्रकार यह बार-बार नि:श्वास छोड़ रहा है, इससे जान पड़ता है कि यह प्यासा नहीं अपितु भयभीत है। निश्चय ही कोई शिकारी इसका पीछा कर रहा है। तुम वृक्ष की ऊपरी शाखा पर चढ़कर भली-भांति देखो कि शिकारी इसी ओर तो नहीं आ रहा।’ मंथरक की बात सुनकर चित्रांग ने कहा-‘‘आपने मेरे भयभीत होने के कारण को सही पहचाना है। मैं किसी प्रकार शिकारियों से बचकर यहां पहुंच पाया हूं, किंतु मेरे साथियों को उन शिकारियों ने अवश्य ही मार दिया होगा। अब मैं आपकी शरण में हूं, अत: कोई ऐसा स्थान बताइए जहां वे शिकारी पहुंच न सकें।’ मंथरक बोला-नीतिशास्त्र के अनुसार शत्रु से बचने के दो ही उपाय हैं।

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संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi : पहला तो यह कि उससे युद्ध किया जाए। दूसरा ये कि अगर ऐसा संभव न हो तो किसी प्रकार वहां से भागकर दूर चला जाए। क्योंकि शिकारियों से युद्ध करने की क्षमता आपमें नहीं है, अतः उचित यही होगा कि उनके यहां पहुंचने से पहले आप किसी घने वन में प्रविष्ट कर जाएं।’ तभी कौआ वृक्ष के ऊपर से बोला-‘मैंने अभी-अभी देखा है कि शिकारी अपने-अपने कधों पर हिरणों को लादे अपने घरों को वापस जा रहे हैं। अब डर की कोई बात नहीं रही, आप शांति से वन में चले जाइए।’ उस दिन से चित्रांग भी उनका साथी बन गया। चारों सुखपूर्वक वहां रहने लगे। दिन इसी प्रकार बीत रहे थे कि एक शाम निर्धारित समय चित्रांग उनके पास नहीं पहुंचा। इससे उन तीनों को चिंता होने लगी। कछुए ने कौए से कहा-मित्र ! हम दोनों तो उसको खोजने में असमर्थ हैं। तुम आकाशचारी हो। जाकर इधर-उधर देखो तो कि वह किस हालत में है।’ कौआ चित्रांग को खोजने के लिए उड़ चला। थोड़ी दूर जाकर उसे मालूम एक जाल में बंधा पड़ा है। उसके पास पहुंचकर कौए ने पूछा-मित्र ! तुम्हारी यह दशा कैसे हो गई ?’ चित्रांग रोता हुआ बोला-‘मेरा मृत्युकाल निकट है। चलो, अच्छा हुआ ऐसे में एक मित्र के दर्शन तो हो गए। आप लोगों के साथ इतने दिन आनंद के साथ बीते हैं। फिर भी आप में से किसी के लिए कभी मेरे मुख से कोई दुर्वचन निकल गया हो तो उसके लिए मुझे क्षमा कर देना।’

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संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi : कौआ बोला-तुम चिंता मत करो मित्र। मैं अभी अपने साथियों को लेकर आता हूं।’
इस प्रकार कौआ वापस अपने स्थान पर गया और अपने दोनों मित्र, हिरण्यक और मंथरक को सारा वृतांत सुनाकर उन्हें भी उस स्थान पर ले आया। हिरण को बंधा देखकर चूहा बोला-मित्र ! तुम तो नीतिशास्त्र के जानकार थे, फिर इस पाश में कैसे बंध गए ?’
हिरण बोला-‘यह समय व्यर्थ की बातों में नष्ट करने का नहीं है। शिकारी आता ही होगा। इसलिए जल्दी से मेरे बंधन काट डालो।’
वे अभी बातें कर ही रहे थे कि दूर से शिकारी आता दिखाई दिया। उसे देखकर हिरण्यक ने जल्दी-जल्दी पाश की काट डाला | पाश के कटते ही चित्रांग उठ खड़ा हुआ और चौकड़ी भरता हुआ दूर चला गया। कौआ उड़कर वृक्ष पर जा बैठा, चूहा समीप के बिल में घुस गया। हिरण के भाग जाने से दुखी मन शिकारी धीरे-धीरे भूमि की ओर देखता चला जा रहा था कि उसको कछुआ दिखाई पड़ गया। कछुए को देखकर उसके मन का संताप थोड़ा कम हो गया।

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संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi : वह सोचने लगा कि विधाता ने यदि हिरण को मुझसे छीन लिया है तो क्या हुआ, आज के आहार के लिए उसने कछुआ तो भेज ही दिया है। यह सोचकर उसने कछुए को पकड़ा और उसको अपने धनुष की नोक पर लटकाकर, धनुष को कंधे पर रख अपने घर की ओर चल पड़ा। अपने साथी की ऐसी हालत देखकर कौए को बड़ा दुख हुआ, इसी बीच चित्रांग और हिरण्यक ने कहा-मित्र ! हमें विलाप करने – में व्यर्थ समय नहीं गंवाना चाहिए। हमें शिकारी का पीछा करके अपने मित्र को छुड़ाने का प्रयास करना चाहिए।’ इस पर सभी ने सहमति जताई। तीनों मित्रों के बीच तय हुआ कि चित्रांग शिकारी के आगे पहुंच किसी छोटे-से तालाब के किनारे निर्जीव-सा होकर पड़ जाए।

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संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi : कौआ उसके सिर पर बैठकर धीरे से उसको कुरेदे, ताकि शिकारी यही समझे कि हिरण मर चुका है। तब वह अपना धनुष नीचे रखकर चित्रांग की ओर आएगा। उसी समय हिरण्यक मंथरक के पास पहुंचकर उसके बंधन काट देगा। पाश कटते ही मंथरक तेजी से दौड़कर समीप के तालाब में जा घुसेगा। ऐसा ही किया गया। कुछ दूर जाने पर शिकारी ने तालाब के किनारे मृत पड़े हिरण को देखा तो वह प्रसन्न हो गया। सोचने लगा कि कछुए को तो मैंने बांधकर रखा ही हुआ है, अब उस हिरण को भी ले आता हूं। यह सोचकर उसने अपना धनुष जमीन पर रख दिया। मौका पाते ही हिरण्यक ने मंथरक के बंधन काट डाले। बंधन कटते ही मंथरक त्वरित गति से दौड़कर तालाब के पानी में विलुप्त हो गया। उधर जब हिरण ने देखा कि मंथरक मुक्त हो गया है और शिकारी अब उसके निकट पहुंचना ही चाहता है तो वह फुर्ती से उठा और छलांग लगाकर गहन वन में जा घुसा।

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संतुष्टि सीमा तो नहीं | Santushti Seema To Nahi : कौआ पहले ही उड़कर वृक्ष पर जा बैठा था। यह सब देखकर शिकारी लज्जित होकर वापस उस जगह लौट आया जहां उसने अपना धनुष रख छोड़ा था। किंतु नजदीक पहुंचा तो उसने कछुए को भी गायब पाया। तब वह दुखी मन से कहने लगा-‘हे प्रभु ! यह आपने क्या कर दिया ? पाश में फंसा मृग तो पहले ही मुझसे छिन चुका था, कछुआ मिला तो वह भी आपके आदेश से भाग गया। अपने परिवार से अलग, मैं भूखा-प्यासा इस वन में । भटक रहा हूं। यह सब आपका ही किया हुआ है प्रभु ! यदि आपके मन में कुछ और हो तो वह भी कर लो, मुझे तो सहना ही है, वह भी सहन कर लूगा।’ इस प्रकार वह शिकारी देर तक विलाप करता रहा, फिर निराश होकर वहां से चला गया ! शिकारी के चले जाने पर कौआ, हिरण, कछुआ और चूहा इकट्ठे हुए और खुशी से झूमने लगे। वे पुनः अपने उसी तालाब पर आ गए और उनमें फिर से वैसी ही गोष्ठियां होने लगीं।

 

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