धन का भय | Dhan Ka Bhay
धन का भय | Dhan Ka Bhay : एक बार देवशर्मा नामक संन्यासी गांव से दूर एकांत स्थान पर किसी मंदिर में रहता थे। बहुत से लोग दूर – दराज से उसका आशीर्वाद पाने आते रहते थे, वे उसे बहुत से सुंदर वस्त्र भेंट स्वरूप दे जाते। संन्यासी उन सबको बेच देता था। इस प्रकार वह बहुत अमीर बन गया। वह अपनी दौलत पर किसी का विश्वास नहीं करता था। उसने सारा पैसा एक चमड़े के थैले में डाल रखा था, जिसे वह हर समय अपनी बगल में दबाए रखता। एक क्षण के लिए भी वह थैले को अपने से अलग न करता।
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धन का भय | Dhan Ka Bhay : अश्वभूति नामक एक चोर को संन्यासी के पैसों से भरे थैले के बारे में पता चल गया। उसने संन्यासी का थैला चुराने की तरकीब सोचनी शुरू की। मंदिर की मोटी दीवारों को तोड़ा नहीं जा सकता था और न ही ऊंचे दरवाजों पर चढ़ा जा सकता था। उसने संन्यासी को अपने प्रेममय वचनों से लुभाकर उसका शिष्य बनना चाहा। जब संन्यासी को मुझ पर विश्वास हो जाएगा, तब मैं आसानी से उसका थैला चुरा लंगा – यह सोचकर वह बहुत खुश हुआ। अश्वभूति जल्दी ही देवशर्मा के सामने जाकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। ‘ॐ नम: शिवाय’ कहकर वह उसके चरणों में गिर पड़ा। ‘हे भगवन! मैं दुनियादारी के झगड़ों से तंग आ चुका हूं, आप मुझे शांति का मार्ग -” दिखाइए ताकि में सच्चा मार्ग अपना सकूं और शांति पा सकूं।’
जब देवशर्मा ने यह सुना, तब उसने – कहा – ‘मेरे पुत्र, तुम इतनी छोटी उम्र में मेरे पास शांति की राह खोजने आए हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें सीधी राह पर डाल दूंगा.’
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धन का भय | Dhan Ka Bhay : अश्वभूति यह सुनकर प्रसन्न हो गया। संन्यासी देवशर्मा ने कहा – ‘मैं तुम्हें इस शर्त पर शिष्य बनाऊंगा कि तुम रात को कभी भी मंदिर के अंदर नहीं आओगे। संन्यासियों को रात में अकेले रहना होता है। तुम्हें मंदिर के दरवाजे के पास बनी कुटिया में रहना होगा।’ अश्वभूति ने उत्तर दिया – ‘मैं बड़ी खुशी से वहां रह लूगा।’
धन का भय | Dhan Ka Bhay : उसी शाम देवशर्मा ने अश्वभूति को धार्मिक अनुष्ठानों के अनुसार अपना शिष्य बना लिया। अश्वभूति संन्यासी के हाथ – पैर की मालिश करता, उसकी हाजिरी में रहता। इस तरह कई दिन बीत गए। अश्वभूति संन्यासी का विश्वास जीतने के लिए जी – जान से प्रयत्न करने लगा, पर देवशर्मा एक भी क्षण के लिए अपने थैले को नहीं छोड़ता था। अशव्भुती निराश होने लगा. वह सोचता – ‘यह संन्यासी मेरा बिलकुल भी विश्वास नहीं करता, मुझे या तो इसे छुरे से मार देना चाहिए या जहर दे देना चाहिए, या किसी जंगली जानवर की तरह इसका शिकार कर देना चाहिए.
धन का भय | Dhan Ka Bhay : अश्वभूति यह सब सोच ही रहा था, तभी पास के एक गांव से देवशर्मा के शिष्य का लड़का जनेऊ की रस्म में निमंत्रण देने के लिए देवशर्मा के पास आया। देवशर्मा खुशी – खुशी उसके साथ चल पड़ा, साथ में अश्वभूति को भी ले लिया। रास्ते में एक नदी आई। संन्यासी का मन उसमें नहाने को हुआ। उसने अपना वस्त्र उतार कर, उसमें रुपये वाला थैला छिपाकर रख दिया और अश्वभूति को उसकी निगरानी करने को कहा। ‘जब तक मैं नहाकर न आऊं, तुम इस सामान को पल भर भी आंखों से ओझल न होने देना।’ ज्यों ही देवशर्मा नहाने के लिए नदी में कूदा, त्यों ही अश्वभूति उस थैले को उठाकर तेजी से भाग खड़ा हुआ।
धन का भय | Dhan Ka Bhay : जब देवशर्मा नहाकर वापस आया, तो उसे अपने थैले का खयाल आया। उसे केवल अपना तुड़ा – मुड़ा वस्त्र ही दिखाई पड़ा। उसका विश्वासी शिष्य कहीं न था। तब उसे पता चला कि अश्वभूति उसे लूटकर सारा धन ले गया है। वह दुखी हो गया और जोर – जोर से चिल्लाने लगा – ‘बदमाश अश्वभूति! तुम कहां हो? मुझे जवाब दो।’ चिल्लाते – चिल्लाते उसका गला बैठ गया, पर कोई जवाब न आया। आखिर में संन्यासी वापस अपने मंदिर की ओर चल पड़ा। वह कह रहा था – ‘अब मैं कभी भी किसी बदमाश के मीठे वचनों पर विश्वास नहीं करूंगा।’