दोण का अपमान : महाराज द्रुपद ने गंभीरता से द्रोण की ओर देखा, “ब्रह्मन् ! अपनी दीन दशा देख रहे हो।’
द्रोण ने द्रुपद की आंखों की गहराई में झांककर देखा तो वे विचलित हो उठे। उन आंखों में द्रोण को मित्रता की कहीं कोई झलक न मिली, फिर वे धीरे से बोले, “क्या कहना चाहते हो द्रुपद?”
“द्रुपद नहीं, महाराज द्रुपद कहो ब्रह्मन् !” महाराज आक्रोश से बोले, “अपनी दीन दशा देखो और फिर हमारा राजसी वैभव देखो ! फिर बताओ कि क्या राजा और रंक की मित्रता संभव है?”
“ओह! तो यह बात है महाराज द्रुपद!”द्रोण आक्रोश से बोले।
द्रोण! बाल्यकाल के वचन और स्मृतियां रेत के घरौंदे होते हैं, जो वायु के एक झोंके में ही नष्ट हो जाते हैं, ”द्रुपद गंभीरता से बोले, “हां, यदि तुम्हें कुछ दान-दक्षिणा चाहिए तो बोलो!”
“मैं महाराज द्रुपद के पास याचक बनकर नहीं, मित्र बनकर आया था।”
“और उसका उत्तर हमने दे दिया है-मित्रता राजा-राजा में होती है, रंक-रंक में होती है, राजा और रंक में नहीं, ”द्रुपद ने द्रोण का तिरस्कार करते हुए कहा।